Real Inspirational Story in Hindi on Patience

 

“धैर्य उन सबसे श्रेष्ठ सदगुणों में से एक है जो किसी इंसान के अन्दर हो सकते हैं। इसे सीखना एक मुश्किल सबक जरूर हो सकता है, लेकिन इसका फल इंतज़ार करने लायक है।”
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

 

Inspirational Story in Hindi on Patience
धैर्य की असली परीक्षा तब होती है जब आप अपने सबसे मुश्किल समय में होते हैं

यह सत्य कथा तमिल आध्यात्मिक साहित्य के महान लेखक और भगवान श्रीराम के भक्त महात्मा तिरुवल्लुर के जीवन से सम्बंधित है। ये महान संत आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व तमिलनाडु राज्य में हुए थे। ये अत्यंत ही सरल स्वभाव, उदारमना, और बेहद सादगी से जीने वाले सच्चे संत थे। अपने और परिवार का निर्वाह करने के लिए ये सूत कातकर कपडा तैयार करते और फिर उसे बाजार में ले जाकर बेचते। दिन भर के कमरतोड़ परिश्रम से वे अपनी आजीविका अर्जित करते थे।

सहनशीलता, धैर्य और क्षमा की तो वे मूर्ति ही थे। लेकिन जैसे इस संसार में कभी न तो अच्छे और महान व्यक्तियों की कमी हुई है, उसी तरह यहाँ पर कभी न तो दुष्टों और न ही नरपशुओं की कमी रही है। एक दिन जब वे बड़े परिश्रम से तैयार की हुई एक बहुमूल्य साडी को लेकर बाजार में उसे बेचने के लिए बैठे थे तो दूसरे लोगों की तरह एक नवयुवक भी वहां पर आया।

वह दुष्ट प्रकृति का था और संत तिरुवल्लुर की ख्याति से जलता था। आज सुनहरा अवसर देखकर उसने उनकी परीक्षा लेने की सोची और उस साड़ी का मूल्य पूछा। संत तिरुवल्लुर ने उसे प्यार भरे शब्दों में साड़ी का मूल्य चार रूपये बता दिया। पर जैसे दुष्ट व्यक्ति अपने स्वभाव से बाज नहीं आता, उसी तरह उस युवक ने संत को क्रोध दिलाने के लिए उस साड़ी को उठाकर उसके दो टुकड़े कर दिए और फिर उनका मूल्य पूछा।

महात्मा तिरुवल्लुर ने बिलकुल शांत रहते हुए ही साड़ी का मूल्य दो-दो रूपये बताया। उस व्यक्ति ने दोबारा प्रत्येक साड़ी के दो-दो टुकड़े कर दिए और फिर प्रत्येक साड़ी का मूल्य पूछा। संतजी ने उसी निश्चल प्रेम भाव से उसे साड़ी का मूल्य एक-एक रूपये बताया, पर संत की सहनशीलता को देखकर भी उस युवक को लज्जा नहीं आई थी।

उसने फिर से प्रत्येक साड़ी के दो टुकड़े किये और फिर उनका मूल्य पूछा। संतजी ने अविचलित रहते हुए ही उनका मूल्य बताया – आठ-आठ आने। वह युवक इसी तरह साड़ियों के टुकड़े-टुकड़े करता गया और उनके दाम पूछता गया। वह यह सोच रहा था कि कभी न कभी तो यह व्यक्ति क्रोधित होगा ही और उसे अवश्य ही कुछ कहेगा, और तब वह संत को सार्वजनिक रूप से अपमानित कर सकेगा।

लेकिन संत तिरुवल्लुर के ह्रदय में तो क्रोध का लवलेश भी नहीं था। वे युवक को उसकी दुष्टता का कोई उत्तर दिए बिना शांत भाव से मूल्य बताते चले गये। आखिरकार जब फाड़ते-फाड़ते वह साडी बिल्कुल तार-तार हो गयी, तो वह युवक साड़ियों के रेशों का गुच्छा संतजी के सामने फेंकते हुए बोला – “अब इसमें क्या रह ही गया है जो इसके पैसे दिये जाँय।”

फिर उस व्यक्ति ने धन का अभिमान प्रदर्शित करते हुए कहा – “यह लो! इस साड़ी की कीमत और उसने पैसे संतजी के सामने फेंक दिये।” संतजी ने निश्चल और शांत स्वर में उत्तर दिया – “बेटा! यह पैसे तुम अपने पास ही रख लो, जब तुमने साड़ी खरीदी ही नहीं तो तुमसे पैसे क्यों लूँ और उन्होंने युवक को पैसे वापस कर दिए।”

इस घटना से उस युवक का ह्रदय पश्चाताप से इतना जलने लगा कि वह सीधे उनके पैरों में ही गिर पड़ा। उसके आंसुओं से भरे नेत्रों को देखकर संतजी की आँखे भी भर आयी।  फिर वे उस युवक से बोले -“बेटा! तुम्हारे चार रूपये देने से इस क्षति की भरपाई नहीं हो सकती। क्या तुमने कभी यह सोचा है कि इस साड़ी को इतना सुन्दर रूप देने के लिए कितने लोगों को अथक परिश्रम करना पड़ा है?

क्या तुम्हे पता है कि कितनी मुश्किलों से किसान ने कपास की फसल प्राप्त की होगी? उसे धुनने और सूत बनाने में कितने लोगों ने अथक परिश्रम किया होगा और अपना अमूल्य समय दिया होगा? मेरे परिवार ने उसे एक मूल्यवान और सुन्दर साडी बनाने के लिए कितनी मेहनत की होगी? उनके गहन बोध से भरे इन शब्दों को सुनकर वह व्यक्ति रोकर उनसे कहने लगा – “तो फिर आपने मुझे पहले ही यह गलत काम करने से क्यों नहीं रोक दिया?”

महात्मा तिरुवल्लुर बोले – “यदि मै तुम्हे पहले ही ऐसा करने से रोक देता, तो तुम्हे यह अमूल्य शिक्षा कैसे मिलती और फिर मुझे भी अपनी सहनशक्ति का पता कैसे चलता? वह युवक प्रसन्न मन से विदा हुआ और फिर बाद में उनका शिष्यत्व स्वीकार कर एक अच्छा इन्सान बना।

“जो शिक्षा प्रेम, सहानुभूति और क्षमा से दी जाती है, केवल वही व्यक्ति के व्यक्तित्व में सच्चा परिवर्तन ला सकती है। क्योंकि यह शब्द नहीं, बल्कि अन्तःकरण के पवित्र भाव हैं, जो बदलाव के कारक हैं।”
– अरविन्द सिंह

 

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