Hindi Story on Forgiveness of Swami Dayananda

 

“दिव्य प्रेम से युक्त सच्चे और सभ्य पुरुष का जीवन एक खुली पुस्तक है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति पढ़ी और समझी जा सकती है। संसार की हज़ार आलोचनाएँ भी अपने सद्विचारों पर दृढ रहने वाले मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकती हैं।”
– स्वामी विवेकानंद

 

Forgiveness Story in Hindi
क्षमा के बिना, कोई भविष्य नहीं है

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती एक उच्चस्तरीय महापुरुष और प्रकांड पंडित होने के साथ-साथ अत्यंत निडर और प्रखर सत्यवादी भी थे। पर यहाँ उनके जीवन की एक घटना के माध्यम से, हमें उनके ह्रदय की आदर्श विशालता का भी पता चलता है कि कैसे एक परम करुणावान और धीर महात्मा ने, न केवल अपने हत्यारे को क्षमा कर दिया, बल्कि उसके प्राणों की भी रक्षा की।

संसार भर में खोज लिया जाय, पर इस अनुपम क्षमाशीलता जैसे दूसरे उदाहरण अत्यंत दुर्लभ ही होंगे। यह उनके जीवन के अंतिम समय की घटना है। जब स्वामी जी संपूर्ण भारत में भ्रमण करते घूम रहे थे और अपनी अनुपम विद्वत्ता से देश और समाज में फैली बुराइयों पर करारी चोट कर रहे थे। इसी क्रम में वे जोधपुर पहुँचे।

वहां वह जोधपुर नरेश के निमंत्रण पर, कुछ समय के लिए रुके हुए थे। अन्य स्थानों की तरह जोधपुर में भी स्वामीजी के विरोधियों की संख्या कम न थी। इसीलिए स्वामी जी के चलते समय, उनके शुभचिंतकों ने उन्हें वहां न जाने की सलाह दी थी। लेकिन स्वभाव से अत्यंत निडर और साहसी स्वामी दयानंद, उनकी आशंकाओं से बेपरवाह अपने कर्तव्यपथ पर चल दिये।

एक दिन जब वह जोधपुर नरेश से मिलने उनके राजमहल गए, तो वहां महाराज की वेश्या, नन्हीजान को देखकर अचंभित रह गए। स्वामीजी परम स्पष्टवादी थे। वह सत्य को व्यक्त करना अपना परम धर्म समझते थे और उसके लिए वह अपने प्राण तक उत्सर्ग करने को तैयार रहते थे। उनके धार्मिक भाषण सुनकर पण्डे, पुजारी, मौलवी सब उनके विरोधी बन गए थे और हर समय उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे।

यहाँ भी स्वामी जी ने अपनी निर्भीक वाणी में, नरेश को उनके कर्तव्य और धर्म के प्रति सचेत करते हुए कहा, “महाराज आप जैसे सिंह को कुतिया का संग शोभा नहीं देता।” महाराज तो यह बात सुनकर लज्जित होकर चुप रह गये, पर नन्हीजान उनकी जान की दुश्मन बन गयी। इस अपमान से अत्यंत क्रुद्ध होकर उसने स्वामीजी को मारने का षड़यंत्र रचा।

उस वेश्या ने स्वामीजी के विरोधियों से मिलकर उनके रसोइये जगन्नाथ को बहकाया और उसे लालच देकर अपने वश में कर लिया। जगन्नाथ यूँ तो स्वामीजी के साथ बहुत सालों से रह रहा था, पर वह अस्थिरचित्त, लोभी स्वभाव का था। विरोधियों की बातों में आकर उस दुष्ट ने, दूध में विष के रूप में, पिसा हुआ कांच मिलकर स्वामीजी को पिला दिया।

थोड़ी ही देर बाद पेट में भयंकर कष्ट उठने लगा, जिस पर स्वामीजी ने जान लिया कि उन्हें विष दिया गया है। उन्होंने यौगिक क्रियाओं से उस जहर को निकालने का प्रयास किया, पर कोई लाभ न हुआ। इससे पहले भी स्वामी जी को कुछ मौकों पर जहर देकर मारने का प्रयास किया गया था, पर हर बार स्वामीजी अपनी योगशक्ति के बल पर उन विषों को निष्प्रभावी कर देते थे।

लेकिन इस बार दुश्मनों ने गहरी चाल खेलते हुए, उन्हें पिसा हुआ काँच खिला दिया, जिसका कोई इलाज नहीं था। स्वामी जी की असहनीय वेदना और बुरी दशा देखकर अनेकों चिकित्सकों को बुलाया गया, पर कोई विशेष लाभ न हो सका। एकांत में अवसर देखकर स्वामीजी ने जगन्नाथ को बुलाया और उससे वास्तविक कारण पूछा।

उनका तेजस्वी मुखमंडल देखकर, जगन्नाथ अपने पाप के डर से काँप उठा। जब स्वामीजी ने उसे निर्भय किया, तब उसने डरते-डरते सारी बात सच-सच बता दी और उनके पैरों में पड़कर क्षमा मांगने लगा। स्वामीजी तो योग के शिखर पर आरूढ़ थे, जहाँ उन्हें न तो स्वयं के प्राणों से कोई प्रेम था और न ही अपने हत्यारे के प्रति प्रतिशोध की कोई भावना।

अपने हत्यारे पर भी अपार करुणा दिखाते हुए, उस महापुरुष ने उसे कुछ पैसे देते हुए कहा कि वह जल्दी से जल्दी जोधपुर की सीमा से बाहर निकल जाय। क्योंकि यदि महाराज या उनके अनुयायियों को इसका पता लग जाता, तो वे उसे जीवित नहीं छोड़ते। जगन्नाथ उसी रात वहाँ से कहीं बहुत दूर चला गया। इस घटना का वास्तविक सच, लोगों को उनके अंत समय ही पता लगा।

इससे पहले तक कोई नहीं जानता था कि उन्हें विष दिया गया है और विष देने वाला कौन है? एक मास तक भीषण कष्ट और मर्मांतक पीड़ा सहने के पश्चात, स्वामीजी ने इस नश्वर देह को त्याग दिया और एक अनुपम उदाहरण मानवता के सामने रखा। महापुरुषों का जीवन दया, करुणा और प्रेम की ज्वलंत मिसाल होता है।

उनका सारा जीवन दूसरों के लिए जीने में ही बीतता है, फिर भी कृतघ्न समाज परोपकार मानने के बजाय, सदा उन्हें दुःख देने की ही चेष्टा करता है। ऐसे वीतराग और विश्व-मानवता के सच्चे पुजारी महापुरुषों के प्रति, हमारी सच्ची श्रद्धांजलि बस यही हो सकती है कि हम उस मार्ग पर चलें, जिस पर चलने की प्रेरणा वे अपने उपदेशों से नहीं, बल्कि उस पर खुद चलकर दे गये हैं।

“व्यक्तित्व में दया और करुणा, मनुष्य को मनुष्यता से उठाकर, देवत्व की कक्षा में ले जाकर खड़ा कर देते हैं।”
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

 

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