Best Inspirational Zen Story in Hindi

 

“सद्ज्ञान और सत्कर्म – यह दो ईश्वरप्रदत्त पंख हैं, जिनके सहारे हम स्वर्ग तक उड़ सकते हैं।”
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

 

Inspirational Zen Story in Hindi
मन स्वर्ग को नरक में और नरक को स्वर्ग में बदल सकता है

जापानी संत हाकुइन एक मशहूर जेन मास्टर थे। उनके आत्मसंयम, त्याग और तितिक्षा के कारण न केवल वहाँ की सारी जनता, बल्कि सम्राट तक उनका सम्मान करते थे। एक बार राजा का सेनापति उनका दर्शन करने आया। कुशल-क्षेम के पश्चात उसने संत से एक विचित्र प्रश्न किया। उसने पूछा, “महाराज, यह बताइये कि क्या स्वर्ग और नरक का अस्तित्व वास्तव में है, या वह केवल कल्पना मात्र और लोगों को डराने का ही एक साधन है?”

मास्टर हाकुइन पहले तो एकटक उसकी ओर देखते रहे फिर उन्होंने उससे प्रश्न किया, “अच्छा! पहले यह बताओ कि तुम क्या काम करते हो? सेनापति ने गर्व भरे स्वर में उत्तर दिया, “मै एक सेनापति हूँ।” संत हाकुइन से शांत स्वर में कहा, “क्या कहा, तुम एक सेनापति हो, पर शक्ल से तो तुम किसी भिखारी के जैसे लगते हो। जिसने भी तुम्हे सेनापति बनाया है, वह परले दर्जे का बेवकूफ है।”

यह सुनते ही उस सेनापति की त्योरी चढ़ गयी। उग्र क्रोध में उसका हाथ सीधे तलवार की मूठ पर चला गया। उसे तलवार लेने को उद्धत देख भी संत विचलित नहीं हुए, बल्कि उसे बोध कराने के उद्देश्य से बोले, “अच्छा! तो तुम्हारे पास तलवार भी है, पर इसकी धार तो पैनी नहीं मालूम पड़ती, फिर इससे मेरा सिर कैसे उड़ाओगे? तुम्हे कोई दूसरी तलवार लानी चाहिये।”

हाकुइन के इन शब्दों ने आग में घी का काम किया। सेनापति का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने झट से तलवार म्यान से बाहर निकाल ली। तभी संत प्रेम से बोले, “लो! अब नरक के द्वार खुल गये।” उनकी वाणी के अपूर्व तेज और निर्भीकता को देखकर वह नतमस्तक हो गया, उनकी बात पूरी होने से पहले ही उसने अपनी तलवार वापस म्यान में रख ली।

क्रोध की वह प्रचंड अग्नि जो अपमान से एकदम भड़क उठी थी, अब विवेक के शीतल जल से शांत हो गयी थी। सेनापति के तलवार म्यान में रखते ही संत हाकुइन बोले, “लो! अब स्वर्ग के द्वार खुल गये।” मास्टर हाकुइन के शब्दों में छिपा ज्वलंत सत्य उस सेनापति को अब समझ में आ चुका था। वास्तव में व्यक्ति जिस क्षण क्रोध की अवस्था में होता है, उस समय वह नारकीय स्थिति में ही होता है।

क्योंकि क्रोध में बुद्धि, विवेक कुंठित हो जाते हैं, सोचने-समझने की क्षमता नहीं रहती, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ध्यान नहीं रहता। बस एक प्रचंड अग्नि, हमारे संपूर्ण अस्तित्व को जलाने लगती है। क्रोध में हम दूसरों का जितना अहित करते हैं, उससे कहीं अधिक अहित स्वयं का कर बैठते हैं। यह एक नाग की तरह हमें ही डसता रहता है।

जिस समय हम क्रोध के राक्षस से पीछा छुडा लेते हैं, वही समय हमारे लिये परम शांतिदायक बन जाता है। और स्वर्ग आखिर है भी क्या? एक ऐसा स्थान जहाँ दुःख का कोई नामो-निशान नहीं, जो सदैव आनंदमय है। वास्तव में हमारा मन ही हमारे लिये स्वर्ग और नरक का निर्माण करता है।

“स्वर्ग और नरक और कुछ नहीं, बल्कि हमारी मनःस्थिति का ही दूसरा नाम हैं।”
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

 

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