Motivational Story of Lord Mahavira in Hindi

 

“विवेकशील व्यक्ति कभी भी दो मन वाले नहीं होते; परोपकारी व्यक्ति कभी चिंता नहीं करते; साहसी व्यक्ति कभी भी भयभीत नहीं होते।”
– कन्फ़्यूशियस

 

इस शानदार और प्रेरक कहानी का पिछला भाग आप Hindi Story on Winner: स्वयं को जीतने वाला ही सच्चा शूरवीर है में पढ़ ही चुके हैं। अब प्रस्तुत है अगला भाग –

भगवान् ने अपनी करुणापूर्ण दृष्टि पुष्य पर स्थिर की और उत्तर दिया, “अहिंसा मेरी माता है और संवर मेरा पिता है। ब्रह्मचर्यं भाई और अनासक्ति बहन है। शांति मेरी प्रियतमा तथा विवेक पुत्र और क्षमा पुत्री है। सत्य मेरा मित्र है और उपशम घर है। जब ऐसा श्रेष्ठ परिवार निरंतर मेरे साथ है तो फिर मै अकेला कैसे हो सकता हूँ?”

“प्रभु! आपकी जीवनचर्या एक नितांत साधारण व्यक्ति के जैसी है और इधर आपके शारीरिक लक्षण एक चक्रवर्ती सम्राट के होने की सूचना देते है। मुझे बड़ा संदेह हो रहा है कि आखिर सामुद्रिक शास्त्र असत्य कैसे हो सकता है” – पुष्य ने निराशा के स्वर में कहा। “अच्छा! तुम ही बताओ कि चक्रवर्ती सम्राट कौन होता है?” – भगवान् ने हँसते हुए पुष्य से पूछा।

पुष्य ने उत्तर दिया – “प्रभु! जिसके आगे-आगे चक्र चलता है।” “क्या चक्रवर्ती होने का कोई दूसरा भी लक्षण है?” – भगवान् ने पूछा। “हाँ प्रभु! जिसके पास वह अदभुत चर्मरत्न होता है जिसमे बोया हुआ बीज प्रायः शाम तक पक जाता है।” “इसके अलावा तुम और किसे चक्रवर्ती सम्राट मानते हो?” भगवान् ने पुनः पूछा।

“प्रभु! जो पृथ्वी का एकछत्र सम्राट होता है और जिसके पास चौदह योजन में फैली सेना को त्राण देने वाला छत्ररत्न होता है।” – पुष्य ने उत्तर दिया। अब भगवान् ने पुष्य के सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा – “पुष्य! यदि तुम प्रज्ञाचक्षुओं से देख सको तो पाओगे कि धर्म का चक्र निरंतर मेरे आगे-आगे चल रहा है।

दिव्य भावनाओं से भरा हुआ मेरा चित्त ही वह चर्मरत्न है जिसमे जिस क्षण जो बीज बोया जाता है, वह उसी क्षण पक जाता है। और सदाचार ही मेरा वह छत्ररत्न है जो संपूर्ण मानवजाति का परित्राण करने में समर्थ है। अब तुम्ही बताओ, क्या मै चक्रवर्ती नहीं हूँ? क्या तुम्हारे सामुद्रिक शास्त्र में ऐसे धर्म-चक्रवर्ती का कोई अस्तित्व नहीं है?”

भगवान् की दिव्य वाणी से निस्रत हुए इन अनमोल वचनों को सुनकर पुष्य का समस्त संदेह दूर हो गया और वह प्रसन्नचित अपनी राह पर आगे बढ़ गया। केवल पृथ्वी पर अधिकार रखने वाला ही चक्रवर्ती सम्राट नहीं होता, बल्कि जिसने अपने मन पर पूर्ण रूप से जय पा ली है और स्वयं को कर्मों की दुस्तर और अगाध जटिल श्रंखला से पूर्णतया मुक्त कर लिया है, वास्तव में केवल वही चक्रवर्ती कहलाने का अधिकारी है।

जिनके मन-मस्तिष्क में पद का अहंकार और अधिकार की वृथा चेष्टा समायी है, वे लोग शासक या सत्तासीन होकर भी निम्न दर्जे के सेवक हैं जो मन की गुलामी करने को मजबूर हैं। वास्तव में सच्चे शासक, विजेता या चक्रवर्ती केवल वही हैं जिन्होंने स्वयं को समग्र रूप से जीत लिया है, जिनकी कोई इच्छा बाकी नहीं रह गयी है और जिन्होंने दूसरों के ह्रदय पर अपने निश्चल प्रेम से अधिकार किया है।

“यदि आप उड़ नहीं सकते, तो दौडिये। यदि आप दौड़ नहीं सकते, तो रेंगिये। लेकिन आप चाहे जो कुछ भी करें, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही रहिये।”
– मार्टिन लूथर किंग, जू.

 

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