Shri Mata Vaishno Devi Mandir History in Hindi

 

“भारत के तीन सबसे बड़े तीर्थस्थानों में से एक, माता वैष्णो देवी मंदिर, जम्मू-काश्मीर राज्य के कटरा शहर में स्थित है। यह भारत की 108 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक है और उन सभी में सबसे अधिक प्रसिद्ध भी। हर साल 80 से 90 लाख लोग माता के दर्शनों के लिये दुनिया भर से जम्मू पहुँचते हैं और उनके पावन दर्शन कर आत्मलाभ उठाते हैं।”

 

Vaishno Devi Mandir Story in Hindi

भारत के उत्तर में स्थित, माता वैष्णों देवी मंदिर, भारत के सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में से एक है, जहाँ प्रत्येक हिंदू अपने जीवन में कम से कम एक बार जाने की आरजू अवश्य रखता है। श्री माता वैष्णों देवी शक्तिपीठ भारत की सभी 108 सिद्ध शक्तिपीठों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। माँ वैष्णों देवी, सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु की शक्ति हैं, जिन्हें वैष्णवी और माता रानी के नाम से भी जाना जाता है।

पहाड़ पर स्थित यह मंदिर, अपनी भव्यता और नयनाभिराम पर्वतीय सौंदर्य के लिये विशेष रूप से प्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार, यह मंदिर, शक्ति को समर्पित पवित्रतम हिंदू मंदिरों में से एक है। इस तीर्थ की उत्पत्ति और ख्याति के पीछे अनेकों कथाएँ जुडी हुई हैं, जिन्हें हम नीचे और विस्तार से देंगे।

Mata Vaishno Devi Temple कहाँ है वैष्णो देवी मंदिर

माँ का मंदिर, जम्मू-काश्मीर राज्य के कटरा नगर में स्थित है जो त्रिकूट पर्वत की तलहटी में बसा है। कटरा, रासी जनपद का एक छोटा सा कस्बा है। वैष्णों देवी मंदिर जम्मू से 42 किमी की दूरी पर है और यह काफी ऊंचाई (समुद्रतल से 5200 मीटर) पर स्थित है। मुख्य मंदिर के गर्भगृह तक पहुँचने के लिये, श्रद्धालुओं को, कटरा से उपर 13 किमी की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती है। यह तीर्थ भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।

यही कारण है कि हर साल लाखों लोग इस सिद्धपीठ के दर्शन करने आते हैं। वर्ष 2012 में यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं का आँकड़ा, 1 करोड़ को भी पार कर गया था। उस वर्ष लगभग एक करोड़ 5 लाख लोगों ने पवित्र पिंडियों के दर्शन किये थे। श्रद्धालुओं की संख्या की दृष्टि से वैष्णो देवी मंदिर, आंध्र प्रदेश के तिरुपति में स्थित, तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर, के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है।

भारत का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ है वैष्णो देवी धाम

हिन्दी फिल्म ‘अवतार’ के प्रसिद्ध गाने “चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है” के बाद से इस मंदिर की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी थी, जो बाद के वर्षों में अपार भीड़ का कारण बनी। आज हर रोज लगभग 25 से 40 हजार भक्त माँ के मंदिर में दर्शन हेतु पहुँचते हैं। मंदिर की देखरेख और व्यवस्था का कार्य, अब श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल देखता है, जो हर साल तीर्थयात्रा को और सुगम बनाने का प्रयास करता है।

पहले माता के दर्शनों के लिये इतनी अधिक भीड़ नहीं जुटती थी, पर आज इस देव स्थान की प्रसिद्धि पूरी दुनिया में फ़ैल गयी है। इसीलिये श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या को नियंत्रित करने के लिये NGT यानि राष्ट्रीय हरित न्याय प्राधिकरण (National Green Tribunal) ने सन 2017 में एक आदेश पारित किया, जिसके अनुसार अब एक दिन में अधिकतम 50000 तीर्थयात्री ही माँ के दर्शन कर सकते हैं।

इससे अधिक श्रद्धालु होने पर यात्रियों को कटरा या अर्धकुमारी पर ही रोका जा सकता है। यात्रियों के ठहरने की समुचित व्यवस्था करने के लिये, वहाँ पर निर्माणकार्य भी आरंभ हो चुका है और आशा है कि भविष्य में वैष्णो देवी की यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं को कोई समस्या नहीं होगी।

 

History of Mata Vaishno Devi Temple

माँ वैष्णों देवी की प्रथम कथा: भक्त श्रीधर की कथा

माता वैष्णो देवी के इतिहास के संबंध में दो कथाएँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं, जिनमे एक त्रेता युग से और दूसरी इसी युग से संबंधित है। एक प्रसिद्ध प्राचीन कथा के अनुसार, 700 वर्ष पहले कटरा के समीप स्थित हंसाली गांव में श्रीधर शर्मा नामक एक गरीब ब्राह्मण रहते थे, जो माँ के परम भक्त थे। अपने भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर, माँ ने उसका यश फैलाने के लिये और दुनिया को अपने अस्तित्व का प्रमाण देने के लिये एक लीला रची।

एक बार माँ ने उस अकिंचन ब्राह्मण को स्वप्न में दर्शन देकर भंडारा (निशुल्क और निःस्वार्थ भाव से हर आयु-वर्ग के व्यक्तियों को भोजन कराना) कराने का आदेश दिया। पर बेचारे श्रीधर की इतनी सामर्थ्य कहाँ थी, इसीलिये उसने माँ को अपनी मजबूरी बताई। माँ ने उसे निश्चिंत किया और कहा कि वह सारी व्यवस्था कर देंगी। श्रीधर ने भंडारे के लिये नवरात्रि का ही एक शुभ दिन निश्चित किया।

फिर उन्होंने आस-पास के गाँववालों व साधु-संतों को भंडारे में पधारने का निमंत्रण दे दिया। अब श्रीधर ने भंडारे के लिये सामग्री जुटाना आरंभ किया, लेकिन बहुत प्रयास करने के पश्चात भी सिर्फ थोडा सा ही सामान इकट्ठा हो सका। जैसे-जैसे भंडारे के दिन नजदीक आ रहे थे, उस गरीब ब्राहमण की चिंता बढती ही जा रही थी। पर उसे माँ की शक्ति पर अटूट विश्वास था।

माँ ने संसार में प्रकट की थी अपनी महिमा

भंडारे वाले दिन श्रीधर और उनकी पत्नी ने कन्याओं का पूजन किया और प्रेमपूर्वक उन्हें भोजन कराया। माता वैष्णो भी उन्ही कन्याओं के बीच में आकर बैठ गयी। भोजन ग्रहण करने के पश्चात और कन्याएँ तो चली गयी, लेकिन कन्या रुपी माता वैष्णो वहीँ बैठी रही। भक्त श्रीधर को चिंतित देखकर उन्होंने उसके दुःख का कारण जान लिया।

फिर वह उससे प्रेमपूर्वक बोली – “बाबा! किस चिंता में बैठे हो, शोक का त्याग करो और घर जाकर सबको भोजन का न्योता दे आओ। आश्वासन पाकर श्रीधर पुनः समस्त ग्रामवासियों को निमंत्रण देने गये। पहले तो गाँववालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि निर्धन श्रीधर भण्डारा कर रहा है, लेकिन फिर उसके आग्रह को देखकर उन्होंने आने की सहमति दे दी।

आते समय रास्ते में पंडित श्रीधर को भैरवनाथ और उनके शिष्य मिले। उन्हें भी श्रीधर ने भोजन के लिये आमंत्रित किया और घर आकर अतिथियों के भोजन की तैयारी करने लगे। कुछ ही समय पश्चात सभी लोग भोजन के लिये एकत्रित हो गये और भोजन परोसा जाने लगा। इसे श्रीधर की अनुपम भक्ति का फल कहें या गाँव वालों का महान सौभाग्य, या फिर माँ का कृपाकटाक्ष, क्योंकि भोजन परोसने वाला और कोई नहीं, स्वयं माता वैष्णों ही थीं।

भैरोनाथ की मूर्खता और हठ

उस स्वादिष्ट भोजन से जो तृप्ति उन गाँव वालों को उस दिन हुई थी, उसने उन सभी को अचंभित कर दिया, पर वह उस दिव्य बालिका को पहचान नहीं पाये। इधर निमंत्रण पाकर उपस्थित हुए भैरवनाथ ने समझ लिया कि यह कन्या मानुषी नहीं, बल्कि कोई देवी है। उसने जान-बूझकर कन्या से भोजन के रूप में माँस-मदिरा की माँग की।

माता वैष्णों भैरोनाथ के मन की इच्छा को भाँप गयी, लेकिन अपने भक्त के महाभोज के संकल्प को पूरा करने के उद्देश्य से उन्होंने उससे निवेदन किया। माता बोली – “बाबा! यह ब्राहमणभोज है। इसमें माँस-मदिरा का सेवन करने से पाप लगता है। अतः आप खीर-पूरी का सात्विक आहार ही ग्रहण करें, लेकिन भैरोनाथ टस से मस न हुआ।

भैरोनाथ जान गया था कि बालिका में अलौकिक शक्तियां हैं, इसलिये उसने माँ की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। जब उसने कन्या को पकड़ने की चेष्टा की, तो माँ उसके ह्रदय का भाव जानकर वहां से अंतर्धान हो गयी और त्रिकूट पर्वत की ओर बढ चली। भैरोनाथ ने भी अपनी शक्ति के बल पर जान लिया कि माता वैष्णों पर्वत की ओर गयी हैं और वह भी उनके पीछे-पीछे चल दिया।

 

Famous Vaishno Devi Story in Hindi

चरण पादुका का रहस्य

9 महीनों तक भैरव नाथ, उस रहस्यमय बालिका को ढूँढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था। जब माता ने भैरोनाथ को अपने पीछे-पीछे आते देखा, तो वह एक गुफा में प्रविष्ट हो गयी। जिस स्थान पर माता ने मुड़कर भैरोनाथ को देखा था, वह स्थान माता की चरण-पादुका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यात्रा में सबसे पहले यही स्थान पड़ता है और यह कटरा से लगभग 2.5-3 किमी की दूरी पर स्थित है।

अधकुँवारी या गर्भजून की गुफा

गुफा के समीप पहुँचकर माता ने अपने सेवक महावीर हनुमान का स्मरण किया, जिन्हें आम भाषा में लांगुर कहा जाता है। उन्हें गुफा के द्वार की रखवाली करने का आदेश देकर, माँ गुफा के अन्दर चली गयी। कहते हैं कि माँ ने यही पर नौ मास तक तपस्या की थी। इस गुफा को ही, “गर्भजून की गुफा या अधकुँवारी या अर्धकुमारी” के नाम से जाना जाता हैं। यह यात्रा का दूसरा पड़ाव स्थान है और श्रद्धालु इस गुफा के अन्दर से होकर दूसरे मार्ग की ओर निकलते हैं।

इस गुफा को गर्भजून की गुफा, इसीलिये कहते हैं, क्योंकि जिस तरह शिशु माँ के गर्भ में नौ मास तक सुरक्षित रहता है, उसी तरह माँ भी इस गुफा के भीतर नौ मास तक छुपी रही थीं। जब भैरोनाथ को गुफा में माता के होने का पता लगा, तो उसने गुफा के अंदर जाने का प्रयास किया, लेकिन द्वार पर खड़े वीर बजरंगी ने उसे रोक दिया।

हनुमानजी ने उसे समझाया कि जिसे वह साधारण कन्या समझ रहा है, वह और कोई नहीं साक्षात जगदंबा है। लेकिन भैरोनाथ काल के वशीभूत था, उसने हठ ठान रक्खा था। जब वह किसी प्रकार न माना, तो कपिराज ने उसे उठाकर दूर फेंक दिया। इसके पश्चात महावीर हनुमान और भैरोनाथ में घोर युद्ध हुआ, जो बहुत समय तक चलता रहा। जब हनुमान युद्ध में क्लांत होने लगे, तो उन्होंने माता का ध्यान किया।

माँ का भवन और भैरोनाथ मंदिर

माँ ने प्रकट होकर भैरोनाथ को फिर से समझाया, लेकिन जब वह नहीं माना तो माँ अद्रश्य हो गयी। भैरोनाथ यह सोचकर कि माँ अभी तक गुफा के भीतर ही है, गुफा के अन्दर चला गया। लेकिन उसे वहाँ कोई न दिखायी पड़ा, क्योंकि उसे अपने पीछे-पीछे आते देखकर, माँ गुफा के दूसरी ओर द्वार बनाकर आगे निकल गयी थी। लेकिन भैरोनाथ भी हार मानने वालों में से नहीं था। उसने माता का पीछा करना जारी रक्खा।

जब वह जड़बुद्धि किसी प्रकार से न माना, तो उस वैष्णवी शक्ति ने कराल महाकाली का रूप धारणकर भैरोनाथ का सिर काट दिया। जो माता के भवन से लगभग 8 किमी दूर भैरव घाटी में जाकर गिरा। इसी स्थान पर भैरोनाथ का मंदिर स्थित है और जिस स्थान पर माता ने उस दुष्ट का सिर काटा था, वहीँ माता का भवन यानि वह पवित्र गुफा स्थित है, जहाँ तीनों पिंडियाँ स्थापित हैं।

यह पिंडियाँ जगतमाता के तीनों स्वरुप सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती का प्रतीक हैं। मृत्यु के पश्चात भैरोनाथ को अपनी भूल पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने माँ से अपने दुष्कृत्य के लिये क्षमाप्रार्थना की। उसकी करुण पुकार सुनकर माँ का ह्रदय द्रवित हो गया। वे भी नहीं चाहती थीं कि भैरो जैसे उच्चस्तरीय योगी की लोग, उसकी केवल उस भूल के लिये निंदा करें, जो उसके जीवन के अंत में अज्ञानवश हुई थी।

उन्होंने उसे अपने धाम में भेज दिया और उसे वर देते हुए कहा – “जो कोई भी मेरे धाम पर आकर मेरा दर्शन करेगा, उसे उसका फल तब तक प्राप्त नहीं होगा, जब तक कि वह तुम्हारा भी दर्शन न कर ले।” और तब से ही यह परिपाटी चली आ रही है कि माँ वैष्णों के दर्शन करने के पश्चात, भैरोंनाथ के दर्शन भी अवश्य ही करने होंगे, अन्यथा यात्रा अधूरी ही रहेगी।

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अपने भक्तों पर सदा दयालु रही हैं माता वैष्णो

इधर माँ के जाने के पश्चात, पंडित श्रीधर बड़े व्यग्र हुए। जब बहुत ढूँढने पर भी, उन्हें उस कन्या के बारे में कुछ पता न चला, तो वे उदास रहने लगे। एक दिन स्वप्न में आकर माता ने उन्हें दर्शन दिया और त्रिकूट पर्वत की गुफा पर आने को कहा। जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्हें यही तीन पिंडियाँ दिखायी दीं। उन्होंने इन्हें माता का प्रतीक समझकर उपासना आरम्भ कर दी।

उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने उन्हें सुसन्तति का आशीर्वाद दिया और उनकी प्रार्थना पर भक्तों के दुखों का निवारण करने के लिये सदा के लिये उनमे अंतर्निहित हो गयी। धीरे-धीरे गुफा की प्रसिद्धि बढ़ी और लोग दूर-दूर से माता के दर्शनों के लिये आने लगे।

पहाड़ की गुफा में स्थित होने के कारण माँ वैष्णों को पहाड़ों वाली माता और त्रिकूट पर्वत पर निवास करने के कारण त्रिकूटा भी कहा जाता है। चूँकि देवी भक्त श्रीधर की प्रार्थना पर अवतीर्ण हुई थी, इसीलिये उसी समय से श्रीधर और उनके वंशज ही माँ वैष्णों की पूजा-अभ्यर्थना करते आ रहे हैं।

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बाणगंगा नदी का रहस्य

कटरा से चढ़ाई शुरू करते ही रास्ते में बाणगंगा नदी पड़ती है, जिसका जल निर्मल और प्रवाह तेज है। इस नदी की उत्पत्ति के संबंध में भी एक कथा है। कहा जाता है कि जब हनुमानजी गुफा के बाहर, माँ की सुरक्षा कर रहे थे, तो इसी बीच एक दिन उन्हें प्यास लगी। उनके प्रार्थना करने पर माँ ने अपने धनुष से पर्वत पर एक बाण चलाया जिससे एक जलधारा फूटी।

उसके जल से हनुमानजी ने अपनी प्यास बुझाई। कालांतर में यही जलधारा, बाणगंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस नदी के जल के बारे में यह मान्यता है कि जो कोई भी इसके जल का पान करेगा या इसमें स्नान करेगा, उसके शारीरिक और मानसिक मल धुल जायेंगे और यह उनकी व्याधियों को भी हर लेगा।

हालाँकि इसका पानी बड़ा शीतल है और प्रवाह भी काफी तेज है, इसीलिये धारा से कुछ दूरी पर रहकर ही स्नान करना चाहिये और साथ में कोई अन्य व्यक्ति भी अवश्य ही होना चाहिये। माता वैष्णो देवी के प्राकटय के संबंध में एक दूसरी कथा और है जो इस प्रकार है –

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माँ वैष्णों देवी की दूसरी कथा: देवी त्रिकुटा का जन्म

यह घटना त्रेता युग की है। दक्षिण भारत में सागर के समीप स्थित एक ग्राम में, रत्नाकर सागर नाम के एक निष्ठावान ब्राहमण रहते थे। दोनों पति-पत्नी जगतमाता के बड़े भक्त थे, लेकिन बहुत समय के बाद भी कोई संतान न होने के कारण अक्सर दुखी रहा करते थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माँ वैष्णों ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा – “मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। इसीलिये तुम्हारे यहाँ जन्म लूंगी।

लेकिन उन्हें वचन देना होगा कि वह कभी भी देवी की इच्छा के रास्ते में नहीं आयेंगे।” रत्नाकर ने यह बात स्वीकार कर ली। उचित समय पर भगवान विष्णु की अंशभूता उस देवी ने लीला से जन्म ग्रहण किया। कन्या अपूर्व सौन्दर्य, ज्ञान तथा दिव्य तेज से संपन्न थी। रत्नाकर ने उनका नाम त्रिकुटा रखा। यही बालिका आगे चालक वैष्णवी कहलायी।

जब त्रिकुटा नौ वर्ष की हुई, तो उन्हें पता लगा कि भगवान विष्णु ने भी श्रीराम रूप से धरती पर अवतार लिया है। उन्होंने मन ही मन भगवान श्रीराम को अपना पति मान लिया और उन्हें पाने के लिये, अपने पिता से समुद्र के किनारे पर तपस्या करने की अनुमति माँगी। माता-पिता से अनुमति मिलने पर, वह सागर तट पर कठोर तपस्या में लीन हो गयी।

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भगवान विष्णु को पति रूप में पाने की प्रतीक्षा कर रही हैं देवी

जब भगवान श्रीराम, सीताजी की खोज करते-करते, अपनी सेना के साथ रामेश्वरम के सागर तट पर पहुँचे, तब उन्होंने गहन ध्यान में लीन त्रिकुटा देवी को देखा। देवी को भी अपने तपोबल से मालूम चल गया कि भगवान श्रीराम यहाँ आ पहुँचे हैं। उनके हर्ष की सीमा नहीं रही और उन्होंने भगवान श्रीराम से, उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा।

जब भगवान श्रीराम ने उन्हें बताया कि वह पहले से ही विवाहित है और उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन दिया है, तब देवी अधीर हो गयी। उनके बारम्बार प्रार्थना करने पर, भगवान ने वचन दिया कि इस जीवन में तो नहीं, लेकिन जब वह कलियुग में, कल्कि रूप में प्रकट होंगे, तब उन्हें पत्नी के रूप में अवश्य स्वीकार करेंगे।

फिर भगवान ने देवी त्रिकुटा से, उत्तर भारत में स्थित, माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफा में, तपस्चर्या करने और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत का कल्याण करने को कहा। देवी ने प्रभु का आदेश स्वीकार किया और तप करने के लिये चल पड़ी। कहा जाता है कि आज भी माँ वैष्णो, त्रिकूट पर्वत पर तपस्यारत रहकर, भगवान के अवतरित होने की प्रतीक्षा कर रही हैं।

आगे पढिये – कैसे जाँय माँ वैष्णों के दर्शन करने!

“चूँकि रावण के विरुद्ध भगवान श्री राम की विजय के लिए मां ने ‘नवरात्र’ मनाने का निर्णय लिया था, इसलिए धर्मप्रेमी हिन्दू, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। भगवान श्री राम ने वैष्णो देवी को वर देते हुए कहा था कि सारा संसार उनकी स्तुति करेगा और देवी त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होकर सदा के लिए अमर हो जाएंगी।”

 

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