Last Updated on June 2, 2019 by Jivansutra

 

Story of Brahmastra in Hindi

 

“पुराणों में हम अक्सर ब्रह्मास्त्र की चर्चा सुनते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह एक दुर्जय अस्त्र था। अर्थात ब्रह्मास्त्र को दूसरे किसी भी अस्त्र या शस्त्र से नहीं दबाया जा सकता था। यह एक अमोघ दिव्यास्त्र था, जिसका निवारण सिर्फ दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही किया जा सकता था। आज हम आपको इसी अस्त्र की शक्ति के बारे में बतायेंगे।”

 

इस कहानी का पिछला भाग आप Ashwathama Story in Hindi में पढ़ चुके हैं। अब आगे पढ़ें – अश्वत्थामा ने तुरंत ही उस दिव्य अस्त्र का चिंतन किया और अपने बायें हाथ से एक सींक उखाड़ ली। फिर यह संकल्प करके कि “पृथ्वी पांडवहीन हो जाय” उसने क्रोध में भरकर वह प्रचंड अस्त्र छोड़ दिया। उस दिव्यास्त्र के छूटते ही आसमान में बिजलियाँ गरजने लगी, दिशाओं में अँधेरा छा गया और उल्कापात होने लगा। अस्त्र से निकली आग, प्रलयकालीन अग्नि के समान तीनों लोकों को भस्म करने लगी।

भगवान श्रीकृष्ण, अश्वत्थामा की चेष्टा देखकर ही उसके मन का भाव समझ गये थे। इसलिये उन्होंने अर्जुन से कहा – “अर्जुन! आचार्य द्रोण का सिखाया हुआ दिव्य अस्त्र, अभी भी तुम्हारे ह्रदय में विद्यमान है। इसीलिये अविलम्ब अपनी और अपने भाइयों की रक्षा करने के लिये उस अस्त्र का प्रयोग करो, क्योंकि ब्रह्मास्त्र को सिर्फ ब्रह्मास्त्र से ही रोका जा सकता है। श्रीकृष्ण के यह कहते ही अर्जुन रथ से धनुष-बाण लेकर कूद पड़े।

उन्होंने पहले “आचार्यपुत्र का मंगल हो” और फिर “मेरा और मेरे भाइयों का मंगल हो” यह कहकर देवताओं और गुरुजनों को प्रणाम किया। इसके बाद “इस ब्रह्मास्त्र से शत्रु का ब्रह्मास्त्र शांत हो जाय” यह संकल्प करके सम्पूर्ण लोकों के मंगल की कामना से अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। अर्जुन का छोड़ा हुआ वह अस्त्र भी अश्वत्थामा के अस्त्र की ही तरह प्रज्वलित हो उठा।

Brahmastra Story in Hindi

दोनों अस्त्रों के आसमान में टकराने से बड़ी भारी गर्जना होने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं और सभी प्राणियों को बड़ा डर लगने लगा। आकाश में बड़ा शब्द होने लगा और हर जगह आग की लपटें फ़ैल गयी तथा पहाड़ों, जंगलों और पेड़ों सहित सारी धरती डगमगाने लगी। उन अस्त्रों के तेज को बढ़ते देखकर, सम्पूर्ण लोकों के हित की कामना से, देवर्षि नारद और महर्षि व्यास, उन दोनों अस्त्रों को शांत कराने के लिये उनके बीच में आकर खड़े हो गये।

यह दोनों महात्मा देवता और मनुष्यों के पूजनीय और अत्यंत यशस्वी हैं। इसलिये उनके कहने पर, अर्जुन बड़ी फुर्ती से अपने दिव्य अस्त्र को लौटाने लगे। फिर वह हाथ जोड़कर बोले – “महात्मन! मैंने तो यह अस्त्र सिर्फ इसीलिये छोड़ा था, ताकि शत्रु का ब्रह्मास्त्र शांत हो जाय। अब इस अस्त्र को लौटा लेने पर तो पापी अश्वत्थामा अवश्य ही अपने अस्त्र के प्रभाव से हम सबको भस्म कर देगा।

इसीलिये जिससे हमारा और सबका हित हो, उसी के लिये आप हमें सलाह दें। यह कहकर अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र को लौटा लिया। सचमुच यह बड़ा दुष्कर कार्य था, क्योंकि उस अमोघ अस्त्र को लौटा लेना, तो देवताओं के लिये भी मुश्किल था। संग्राम में एक बार छोड़ देने पर, तो उसे लौटाने में अर्जुन के सिवा, स्वयं इंद्र भी समर्थ नहीं थे।

भगवान ब्रह्मा की शक्ति से उत्पन्न हुआ था ब्रह्मास्त्र

वह दिव्यास्त्र ब्रह्मतेज से प्रकट हुआ था। असंयमी पुरुष उसे छोड़ तो सकता था, लेकिन उसे लौटाने का सामर्थ्य ब्रह्मचारी के सिवा और किसी में नहीं था। यदि कोई ब्रह्मचर्यंहीन पुरुष उसे एक बार छोड़कर फिर लौटाने का प्रयास करता, तो वह अस्त्र परिवारसहित उस व्यक्ति का ही सिर काट लेता था। अर्जुन ब्रह्मचारी और व्रती थे, इसलिये दुष्प्राप्य होने पर भी उन्होंने यह परमास्त्र प्राप्त कर लिया था।

बड़ी भारी विपत्ति के अलावा वह इस अस्त्र का प्रयोग कभी नहीं करते थे। चूँकि वह सत्यवादी, शूरवीर, ब्रह्मचारी, और गुरु की आज्ञा का पालने करने वाले थे, इसलिये उन्होंने एक बार छोड़ने के बावजूद, दोबारा उस अमोघ अस्त्र को लौटा लिया। इधर अश्वत्थामा ने जब उन ऋषियों को अपने अस्त्र के सामने खड़े और अर्जुन को ब्रह्मास्त्र लौटाते देखा, तो उसने भी उसे लौटाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन वह वैसा न कर सका।

तब वह दुखी होकर व्यासजी से कहने लगा “महात्मन! मैंने भीम के डर से और अपनी जान बचाने के लिये ही यह अस्त्र छोड़ा था, लेकिन संयमी न होने के कारण, मै यह अस्त्र लौटा पाने में समर्थ नहीं हूँ। अतः आज यह अस्त्र सभी पांडवों के प्राण ले लेगा। अवश्य ही आज मैंने बड़ा पाप किया है।

आगे पढिये इस कहानी का अगला भाग – जानिये क्यों दिया था भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा को शाप

“निर्बल कभी क्षमा नहीं कर सकता, क्षमा शक्तिशाली का गुण है।”
– महात्मा गाँधी
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