Last Updated on November 1, 2018 by Jivansutra
Motivational Story in Hindi for Couples: Dadabhai Naoroji
प्रस्तुत कहानी भी उसी कठोर सत्य से हमारा परिचय कराती है जो आज आधुनिक शिक्षा के इस युग में भी कितनी ही जिंदगियों को चौपट कर रहा है। और यह सत्य कहानी भी किसी सामान्य व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस महान व्यक्ति की है जिसका भारत के नवनिर्माण में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान था। यह घटना आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले की है। उस समय की प्रथा के अनुसार विवाह जल्दी ही संपन्न करा दिये जाते थे।
जब उस महान व्यक्ति का विवाह हुआ था तब उसकी आयु केवल 12-13 वर्ष थी, पर कन्या की आयु तो सिर्फ़ 9-10 वर्ष की ही थी। वर की माता ने खूब सोच-समझकर वधु का चुनाव किया था, लेकिन कुछ मास के पश्चात ही माँ को अनुभव होने लगा कि कन्या उसके पुत्र के योग्य नहीं है और उसने दूसरी उत्तम गुणों वाली कन्या खोजकर दूसरे विवाह के लिये बातचीत आरम्भ कर दी। माता ने पुत्र को अपने निश्चय के बारे में बता दिया।
लेकिन अब पुत्र भी कुछ समझदार हो चला था। उसने स्पष्ट रूप से कह दिया कि अब किसी प्रकार से दूसरा विवाह न हो सकेगा। माँ को अपने बेटे से ऐसे उत्तर की आशा न थी। वह नाराज होकर कहने लगी – “किससे विवाह करना है और किससे नहीं, यह मेरे निर्णय का विषय है; तुम्हारे नहीं! तुम अभी बालक हो, नादान हो। मैंने कन्या पक्ष को आश्वासन दिया है, अब क्या तुम्हारे कारण मुझे उनके सामने लज्जित होना पड़ेगा।
क्या यही दिन देखने के लिये मैंने तुम्हे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया था।” पुत्र ने उत्तर दिया – “माँ! आपका अपमान करने का मै सपने में भी साहस नहीं कर सकता। आपका मान मुझे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय है, पर जरा यह तो सोचिये क्या दूसरा विवाह करने से पहली पत्नी का जीवन नष्ट नहीं हो जायेगा। क्या हम उसके और उसके माता-पिता के अपराधी नहीं होंगे? लेकिन माता फिर भी नहीं मानी।
वह बोली – “यह सब मै नहीं जानती! मैंने वचन दे दिया है। अब तो तुम्हे विवाह करना ही होगा।” बेटा फिर बोला – “अच्छा माँ! यह तो बताओ, अगर वह कन्या तुम्हारी अपनी पुत्री होती, तब क्या उसके साथ हुए इस व्यवहार को देखकर तुम पर दुखों का पहाड़ न टूट पड़ता और मान लो यदि कन्या के स्थान पर मुझे ही अयोग्य ठहरा दिया जाता, तो तब क्या तुम उस कन्या को दूसरा विवाह करने की अनुमति दे देती।” अपने पुत्र के इस तर्क का माँ के पास कोई उत्तर न था, वह चुप हो गई।
बेटा फिर बोला – “माँ! हम स्वार्थी मनुष्य हैं, क्योंकि स्वार्थी लोग सिर्फ अपने सुख-दुःख के बारे में सोचते हैं। उन्हें केवल अपनी ही खुशहाली दिखती है। दूसरों के कष्ट और परेशानियों से उन्हें कोई मतलब नहीं होता, लेकिन क्या ऐसे जीवन को जीवन कहा जा सकता है। हमसे तो पशु अच्छे जो अकारण किसी को कष्ट नहीं देते। मनुष्य जैसे श्रेष्ठ प्राणी के लिये तो यही उचित है कि वह उन कार्यों को प्रधानता दे जिससे दूसरों का हित हो।”
पुत्र के इन बोधपूर्ण वचनों को सुनकर माँ बड़ी लज्जित हुई और उसने फिर कभी दूसरे विवाह का नाम नहीं लिया। अपने आत्मगौरव को पहचानने वाले और प्राणियों में समता का भाव देखने वाले यह महापुरुष और कोई नहीं बल्कि, काँग्रेस पार्टी के संस्थापक दादाभाई नौरोजी थे जो भारतमाता के सच्चे सपूत और स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ प्रखर समाज सुधारक भी थे।
– अज्ञात
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