Jean Henry Dunant: Story of A Successful Person in Hindi

 

“सारा संसार उस व्यक्ति के लिए रास्ता छोड़कर खड़ा हो जाता है, जो यह जानता है कि वह कहाँ जा रहा है।”
– अज्ञात

 

Story of A Successful Person in Hindi
एक सच्चा इंसान जो सिर्फ इंसानियत के लिये जिया

आज इस लेख Story of A Successful Person in Hindi में हम एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन कर रहे हैं जिसने अपने ऊँचे उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ गँवा दिया था, जिसने अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी मुफलिसी में काटी थी, और जिसने दूसरों की जिंदगी बेहतर करने को दर-दर की ठोकरें खायीं थीं। पर जिसे दुनिया, अपनी कोई व्यक्तिगत उपलब्धि न होने के बावजूद एक बेहद कामयाब इन्सान (Highly Successful) मानती हैं, क्योंकि वह दूसरों के लिये जिया था।

क्योंकि उसने अपनी कामयाबी को व्यक्तिगत रखने के स्थान पर संसार के बाकी मनुष्यों के जीवन तक प्रसारित कर दिया था, क्योंकि उसने अपनी Success को दूसरों की हँसी और सुख में खोजा था। हम भी ऐसे ही इन्सान को वास्तव में एक कामयाब इन्सान मानते हैं जिसके होने से संसार पर प्रभाव पड़ा था, जो एक प्रेरणा बनकर जिया और एक प्रकाश-स्तंभ की तरह आज भी लोगों को राह दिखा रहा है।

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A Great Man Who Lived for Humanity एक महान इंसान जो मानवता के लिये जिया

संसार के अधिकतर लोग सफलता को धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा, यश-मान आदि की उपलब्धि से जोड़कर देखते हैं और यह सभी चीज़ें जिसके पास जितनी अधिक मात्रा में होती हैं उसका समाज में उतना ही अधिक सम्मान होता है। लोग उसे उतना ही ज्यादा Successful मानते हैं। लेकिन एक पल के लिए भी कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि आखिरकार जिस व्यक्ति ने इन सब चीज़ों का संग्रह किया है उसने ऐसा करने के लिये किसी अनुचित साधन का इस्तेमाल तो नहीं किया है।

और जिन चीज़ों के आधार पर हम उसकी सफलता का मूल्याँकन (Evaluation of Success) कर रहे हैं, क्या वह संसार के बाकी मनुष्यों के लिये भी महत्वपूर्ण और किसी उपयोग की है? क्या वह इन्सान जिसे हम कामयाब समझते हैं, अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट है या फिर वह और ज्यादा के लिये मरा जा रहा है?

यदि वह संतुष्ट नहीं है और उसकी सफलता (Success) सिर्फ उस तक ही सीमित है, तो महान व्यक्तियों द्वारा निर्धारित की गयी सफलता की कसौटी (Touchstone of Success) पर उसकी कामयाबी खरी नहीं है और ऐसे इन्सान को किसी भी तरह से सफल नहीं कहा जा सकता है, फिर चाहे लोगों का एक बड़ा समुदाय उसे कामयाब क्यों न मानता हो।

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Story of Founder of Red Cross रेड क्रॉस के संस्थापक

Red Cross के नाम से, तो शायद आप सब परिचित ही होंगे। अगर नहीं भी जानते है, तो आपने Doctors के Clinics और Ambulance पर लगे हुए लाल रंग के क्रास (+) के निशान को तो देखा ही होगा। यह चिंह वास्तव में ईसाईयों के धार्मिक प्रतीक चिंह Cross का ही एक स्वरुप है, जिसे Red Cross ने अपने संगठन की पहचान के रूप में प्रयुक्त किया है। Red Cross के द्वारा ही इस चिंह का प्रचार, सारे संसार में, जीवन रक्षा के प्रतीक चिंह के रूप में हुआ है।

Red Cross एक International Organization है, जिसका मुख्य उद्देश्य युद्ध या किसी भीषण आपदा के समय लोगों की जीवन रक्षा करना है। यह संगठन सारे संसार में फैला हुआ है, पर जो महापुरुष इस Global Humanitarian Organization के Founder थे, उन्हें अपने जीवनकाल में इसका वैसा श्रेय न मिल सका, जैसा मिलना चाहिए था। उनका सारा जीवन अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सतत संघर्ष करने और कठिन परिस्थितियों का सामना करने में ही बीता था।

जैसा कि प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन के साथ होता है, समाज सदा उस व्यक्ति का विरोध करता है, जो उसे बदलने की दिशा में काम करता है। यही उस महान व्यक्ति, जीन हेनरी डूनंट के साथ हुआ। न जाने कितने कष्ट सहे, न जाने किस-किस का विरोध सहना पड़ा, पर उस महात्मा ने जीवन के उद्देश्य से कोई समझौता नहीं किया। लेकिन उनके जीवन के अंतिम समय में संसार ने उनका मूल्य समझा और सन 1901 के प्रथम नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया।

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Early Life Story of Dunant डूनांट का आरंभिक जीवन

Jean Henry Dunant का जन्म स्विट्ज़रलैंड के खूबसूरत जेनेवा शहर में 8 मई सन 1828 के दिन एक Businessman Family में हुआ था। वे अपने माता-पिता जीन-जैक्स डूनंट (Jean-Jacques Dunant) और एंटोइनेट्टे डूनंट-कोल्लाडन (Antoinette Dunant-Colladon) की पहली संतान थे। उनका परिवार एक बहुत धर्मपरायण काल्विन मतवादी परिवार था, जिसका जेनेवा समाज पर बड़ा प्रभाव था। उनके माता-पिता Social Work को बहुत महत्व देते थे।

इसलिए ज्यादातर समय उनके पिता अनाथों और असहायों की मदद करने और माँ बीमारों और गरीबों की सेवा में बिताती थी। उनके पिता एक अनाथाश्रम और जेल में काम करते थे। इस तरह बचपन से ही उन पर धार्मिक संस्कारों का गहरा प्रभाव पड़ा और 18 वर्ष की आयु में ही वे जेनेवा की Charity Society में शामिल हो गए।

वे उस दौर में बड़े हुए, जब यूरोप में धार्मिक जागरण का समय चल रहा था, जिसे Réveil के नाम से जाना जाता है। सन 1849 में जब वे 21 वर्ष के थे, तो कम नंबरों के चलते उन्हें College छोड़ना पड़ा। अपनी पढाई पूरी करने से पहले ही, वे जेनेवा के एक Bank में Apprentice करने लगे और बाद में वहीँ पर नौकरी भी। समाज के लिए कुछ करने का जज्बा, उनमे बचपन से हिलोरे मारता था।

इसलिए कुछ समय बाद ही उन्होंने अपने मित्रों के साथ “Thursday Association” नाम के एक संगठन की स्थापना की, जो कुछ नवयुवकों का समूह था, जिसका उद्द्देश्य गरीबों की मदद करना था और जो Bible के मतों को मानते थे। उनका अधिकतर समय जेलों की Visit करने और Social Work में बीतता था। सन 1852 में उन्होंने YMCA की Geneva Branch की स्थापना की।

Great Moments of Transformation परिवर्तन के महान क्षण

सन 1853 में उन्हें Company की ओर से अल्जीरिया और ट्युनिसिया की यात्रा पर जाना पड़ा, जहाँ उन्हें Swiss Colony “Setif” का चार्ज लेना था। काम का कम अनुभव होते हुए भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह से निभाया। सन 1856 में उन्होंने ‘Financial and Industrial Company’ के नाम से एक Firm बनाई थी।

लेकिन पानी और जमीन पर अधिकार के मुद्दे पर मतभेद होने और Local Authorities के मदद न करने से डूनांट ने सीधे French Emperor Napoleon III के सामने अपील करने का निर्णय लिया, जो उस समय लोम्बार्डी में अपनी सेना के साथ आया हुआ था और यहीं वह घटना घटी जिसने इस Successful इन्सान की जिंदगी ही बदल दी।

Battle of Solferino सोल्फेरिनो का युद्ध

नेपोलियन तृतीय वहाँ उत्तरी इटली में Piedmont-Sardinia की तरफ से ऑस्ट्रिया के विरुद्ध लड़ रहा था। नेपोलियन उस समय एक छोटे शहर सोल्फेरिनो में रहता था। डूनांट ने पहले तो नेपोलियन की प्रशंसा में एक किताब भेजी और बाद में स्वयं उससे मिलने Solferino गये। डूनांट 24 जून 1859 की जिस शाम को सोल्फेरिनो पहुंचे थे, उसी दिन दोनों सेनाओ के बीच भयंकर युद्ध हुआ था।

उस युद्ध में लगभग 23000 घायल और मरे हुए लोग धरती पर पड़े हुए थे, जिनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। इस घटना से जीन हेनरी डूनांट का दिल दहल उठा। इससे पहले उन्होंने ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। फिर कभी लोगो को इस तरह न मरना पड़े, इसके लिए उन्होंने Civilian Population, विशेषकर औरतों और बच्चो की मदद से एक संगठन बनाने का निर्णय लिया।

जिसका उद्द्देश्य बीमार और घायल सैनिकों की मदद करना था। चूँकि उन्हें आवश्यक सामग्री का अभाव रहता था, इसलिए डूनांट ने खुद ही आवश्यक सामग्री जुटाने और Temporary Hospitals बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के सभी को सबकी समान भाव से सेवा करने को कहा, जिसका Slogan था ‘Tutti fratelli'(All are brothers).

 

Foundation of The Red Cross रेड क्रॉस की स्थापना

जेनेवा लौटने के कुछ समय बाद डूनांट ने सन 1862 में अपने अनुभवों पर एक किताब लिखी, जिसका नाम था “A Memory of Solferino”। इसे उन्होंने अपने खुद के Expenses पर Distribute किया। इस किताब में उन्होंने युद्ध, उस पर आने वाले खर्च और उसके बाद की भयानक परिस्थितियों (Terrible Circumstances) का वर्णन किया था। इसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भविष्य में एक ऐसा Neutral Organization बनाया जाये, जो घायल सैनिकों की मदद कर सके।

उन्होंने इस किताब को पूरे यूरोप में Leading Political Parties और Military Regiments में बंटवाया ताकि शासन में उच्च पदों पर बैठे लोग युद्ध की विभीषिका को समझ सकें। Dunant अपने इस Idea को सबके सामने रखने के लिए सारे यूरोप में घूमे। अब वे प्रसिद्ध हो चुके थे और राज्यों के मुखिया, राजा तथा European Courts के राजकुमार भी उनका सम्मान करते थे।

उनकी किताब की सभी ने दिल से सराहना की और “Geneva Society for Public Welfare” के President गुस्ताव मोय्निएर (Gustave Moynier) ने इस किताब के विचारों पर संगठन की एक Meeting रखी। सभी Members ने उनकी Recommendations को परखा और मुक्तकंठ से उनकी सराहना की। इस Meeting में 5 लोगों की एक Committee बनाई गई, जिसका उद्द्देश्य इन Suggestions के Implementation की संभावनाओं को अंतिम रूप देना था।

Resign From The Committee समिति से त्यागपत्र देना

इस समिति के Members में डूनांट को भी शामिल किया गया। 17 February 1863 की First Meeting को ‘International Committee of Red Cross’ की Founding Date माना जाता है। लेकिन जल्दी ही गुस्ताव मोय्निएर और डूनांट के बीच अपने अलग-अलग Personal Plans और Vision के कारण मतभेद और झगड़े बढ़ने लगे। मोय्निएर ने डूनांट के Plans को Unfeasible बताया और उन्हें उन पर काम न करने की सलाह दी।

पर डूनांट High-Ranking Political और Military Figures के साथ अपनी यात्राओं और वार्ताओं में अपने Idea की बात जोरशोर से उठाते थे। इस कारण से व्यवहारिक सोच वाले Moynier और आदर्शवादी दूरद्रष्टा (Visionary Idealist) डूनांट के बीच झगडा और भी ज्यादा बढ़ गया और मोय्निएर ने सीधे-सीधे डूनांट की Leadership को ही Challenge कर दिया।

सन 1863 में जेनेवा में आयोजित की गयी Committee की Meeting में 14 States ने भाग लिया। सन 1864 में Swiss Government के द्वारा आयोजित की गयी, Diplomatic Conference में First Geneva Convention की नींव रखी गयी, लेकिन डूनांट को कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी गयी। जेनेवा में फैली सामाजिक अराजकता ने भी उन्हें International Committee से अलग होने को मजबूर किया।

 

Great Struggle of Henry Dunant डूनांट का महान संघर्ष

सन 1868 में उनकी माँ की मृत्यु हो गई। उसी साल उन्हें YMCA से भी निकाल दिया गया। March 1867 में उन्होंने अपने गृह नगर जेनेवा को छोड़ दिया और फिर कभी नहीं लौटे। अगले कई वर्षों तक, मोय्निएर ने अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करते हुए, इस बात का भरसक प्रयास किया कि डूनांट को अपने साथियों और सहायकों से कोई मदद न मिल सके।

उदाहरण के लिए – Paris World’s Fair में Sciences Morales का Gold Medal Prize डूनांट को मिलना पहले से ही तय था, लेकिन यह मोय्निएर, डोफोर और डूनांट को सम्मिलित रुप से दिया गया, ताकि सारी की सारी Prize Money समिति के खाते मे जाये और डूनांट को कुछ भी न मिल सके। इस तरह देखा जाय, तो डूनांट को किसी भी तरफ से कोई मदद नहीं मिल पा रही थी, फिर भी उन्होंने अपना धैर्य टूटने न दिया और अपने प्रयास में लगे रहे।

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Idealistic Attitude of Dunant डूनांट का आदर्शवादी दृष्टिकोण

अपने Idealistic Views के कारण अल्जीरिया में डूनांट का Business मंदा पड़ने लगा और एक Financial Firm के Scandal की वजह से दिवालिया हो जाने पर Geneva Trade Court ने डूनांट की निंदा की और धोखे से कारोबार करने के कारण, सन 1868 में उन्हें दिवालिया घोषित कर दिया। उस Firm में Investment होने के कारण, उनके परिवार और मित्रों को बहुत घाटा उठाना पड़ा।

डूनांट पूरी तरह से बर्बाद हो चुके थे और उन पर उस समय लगभग 1 Million Swiss Francs का भारी क़र्ज़ था। एक समय ऐसा भी आया, जब उन्हें Public Benches पर सोना पड़ा। हालाँकि Napoleon III ने उन्हें मदद की पेशकश की थी। 25 August 1868 को उन्होंने Secretary के पद से इस्तीफा दे दिया। कुछ ही दिन बाद मोय्निएर के कारण उन्हें Committee से ही पूरी तरह निकाल दिया गया।

Days of Extreme Poverty भयंकर गरीबी के दिन

डूनांट, पेरिस चले गए, जहाँ पर उन्होंने मुफलिसी में दिन काटे। हालाँकि, वहां भी वे अपने Humanitarian Ideas और Plans पर काम करते रहे। Franco-Prussian War (1870–1871)के दौरान उन्होंने Common Relief Society की स्थापना की। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विवादों (International Conflicts) को निपटाने के लिए एक International Court के निर्माण की दिशा में भी काम किया था।

कुछ वर्ष बाद उन्होंने एक World Library बनाने के लिए प्रयास किया, जो बाद में UNESCO के रूप में सामने आया। अपने Ideas को मूर्त रूप देने के लिए, उन्होंने अपनी Financial Condition और Income पर भी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण उनकी आर्थिक स्थिति और ज्यादा ख़राब हो गयी। वे गरीबी में रह रहे थे, फिर भी अपने ऊँचे उद्देश्य के लिए 1874 और 1886 के बीच उन्होंने यूरोप के कई देशों की यात्राएँ की।

ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, स्वीडन, प्राग और स्पेन की National Red Cross Societies के Honorary Member होने के बावजूद उन्हें Red Cross Movement की Official Meetings में कोई महत्व नहीं दिया जाता था, जबकि Red Cross तेजी से दूसरे देशों में भी फैलता जा रहा था। अगले कई वर्षों तक, एक समय के Famous और Successful Businessman रहे डूनांट को भटकते हुए और भीषण गरीबी में दिन काटने पड़े।

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Success Story of A Great Humanitarian एक महान मानवतावादी

डूनांट के अथक प्रयासों के कारण 1 फ़रवरी सन 1875 को लंदन में “नीग्रों और गुलामों के व्यापार के संपूर्ण और निर्णायक अंत” के विषय पर एक International Congress आयोजित की गयी। उन्होंने Alsace, Germany और Italy की पैदल यात्राएं की, जहाँ वे अपने कुछ मित्रों की मेहमाननवाज़ी और Charity पर निर्भर रहे। सन 1887 में उन्हें अपने दूर के Family Members से हर महीने कुछ Financial Support मिलने लगी।

आखिर में उसी वर्ष वे Switzerland के एक गाँव Heiden चले गए, जहाँ उन्होंने बाकी का जीवन बिताया। लेकिन Environment बदलने के कारण वे बीमार पड गए। वहां उन्हें एक Local Hospital में शरण मिली, जहाँ एक Journalist ‘George Baumberger’ ने उन्हें खोज निकाला। सितंबर 1895 में जॉर्ज बौम्बर्गेर, जो एक Famous Newspaper के Chief Editor थे, डूनांट से हेड़ेन में मिले।

उन्होंने “Red Cross के Founder – हेनरी डूनांट” के Title से एक Article निकाला और उनकी Success Story को विस्तार से छापा। बाद में जर्मनी की एक प्रसिद्ध पत्रिका ने भी उन पर एक लेख लिखा और फिर ये लेख यूरोप के दूसरे कई Publications ने भी छापे। इस Article ने उन्हें पूरे यूरोप में प्रसिद्ध कर दिया। सारे संसार से लोगों के सहानुभूतिपूर्ण सन्देश डूनांट तक पहुँचने लगे और रातों-रात वे फिर से और ज्यादा प्रसिद्ध और सम्मानित हो गए।

सन 1897 में Rudolf Miller (जो Stuttgart में एक अध्यापक थे) ने Red Cross के Origin पर एक पुस्तक लिखी, जिसमे उन्होंने डूनांट के योगदान पर जोर दिया था और Solferino के युद्ध की चर्चा भी की थी। उन्हें एक Swiss Prize मिला और Pope ने भी उनकी प्रशंसा की। कई अन्य लोगो से सहायता मिलने के कारण, अब उनकी Financial Condition भी सुधरने लग गयी थी।

इसके बाद डूनांट ने कई लेख लिखे और स्त्रियों के अधिकारों के लिए सन 1897 में एक संगठन “Green Cross” की स्थापना भी की। भले ही देर से ही सही, लेकिन अब संसार जीन हेनरी डूनांट के असाधारण त्याग को पहचानने लगा था और इस Successful इन्सान की मेहनत रंग लाने लगी थी।

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Nobel Peace Prize शांति का नोबेल पुरस्कार

सन 1901 में डूनांट को उनके Extraordinary Works के लिए पहले Noble Peace Prize से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें फ्रेंच शांतिदूत फ्रेडरिक पस्स्य के साथ सयुंक्त रूप से दिया गया, जो Peace League के संस्थापक थे। मोय्निएर और ‘International Committee of Redcross’ को भी इस Prize के लिए Nominate किया गया था, लेकिन Selection Process के दौरान ज्यादातर लोगो ने डूनांट का ही समर्थन किया।

कुछ लोगों ने Red Cross की यह कहकर आलोचना की कि इससे युद्ध को बढ़ावा मिलेगा। इसलिए Muller ने Committee को एक पत्र लिखा, जिसमे उन्होंने पुरस्कार को डूनांट और पस्स्य के बीच बाँटने की सलाह दी। इसके अलावा, उन्होंने यह भी लिखा कि यदि डूनांट को पुरस्कार देना ही है, तो उनकी उम्र और बुरे स्वास्थ्य को देखते हुए इसे जल्द से जल्द दिया जाये।

International Committee ने ‘International Red Cross Movement’ की स्थापना करने और Geneva Convention शुरू करने के लिए उनकी यह कहते हुए सराहना की –

“दूसरा कोई भी व्यक्ति इस सम्मान को पाने का उतना हकदार नहीं है, जितने कि आप। क्योंकि यह आप ही थे, जिसने 40 साल पहले युद्धभूमि में घायल पड़े लोगों, की मदद के लिए एक International Organization की नींव रखी थी। बिना आपके समर्पण के Red Cross, जो 19th century का Supreme Humanitarian Achievement है, का अस्तित्व शायद ही संभव रहा होता।”

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Incredible Story of A Successful Man एक अविश्वसनीय कहानी

अगले कई वर्षों में उन्हें, अनेकों Awards दिए गए। सन 1903 में University of Heidelberg की ओर से उन्हें Doctorate की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया गया। अपनी वसीयत में उन्होंने Nobel Prize में मिले पैसे को, हेडेन नर्सिंग होम को दान कर दिया था, जिसका उपयोग कई Free Beds के Arrangement में किया जाना था, ताकि उस क्षेत्र के गरीब मरीजों को हमेशा निशुल्क बिस्तर मिल सके।

कुछ पैसे उन्होंने अपने मित्रों और Norway तथा Switzerland के Charitable Organizations को दे दिये। बचे हुए पैसे को उन्होंने अपने कर्ज़ेदारों को दे दिया, ताकि कुछ ऋण चुकता हो सके। पर उनकी मृत्यु तक, उन्हें यह अफ़सोस बना रहा कि वह अपना क़र्ज़ नहीं चुका सके। 8 May, जो उनका Bitrthday भी है, World Red Cross और Red Crescent Day के रूप में मनाया जाता है।

उनके जीवन पर कुछ फिल्मों का भी निर्माण किया गया है। वे अपनी मृत्यु के समय तक Heiden के Nursing Home में ही रहे। उनकी आखिरी इच्छा के अनुसार, उन्हें बिना किसी Ceremony के Zurich में दफना दिया गया। हेडेन के उस पुराने नर्सिंग होम में अब Henry Dunant Museum बना हुआ है। डूनांट निश्चित रूप से एक Successful Person थे जिनकी Success ने कई लोगों की जिंदगियाँ बदलीं।

Last Days of Life जीवन के अंतिम दिन

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, वह Depression और Paranoia के शिकार हो गए थे, क्योंकि उनके कर्ज़ेदार और मोय्निएर अब भी उनका पीछा कर रहे थे। नौबत यहाँ तक आ गयी थी कि डूनांट अपने लिए आने वाले भोजन को पहले Nursing Home के Cook को अपनी आँखों के सामने Taste कराते, ताकि संभावित जहर के खतरे से बचा जा सके।

30 October 1910 के दिन, मानवता के इस महान पुजारी का, जो सच्चे अर्थों में एक बेहद कामयाब इन्सान (Successful Person) था, निधन हो गया। उनके आखिरी शब्द थे कि “मानवता कहाँ चली गयी है?” जीन हेनरी डूनांट को गए हुए 100 वर्ष से भी ऊपर का समय हो चला है, पर आज भी उनकी अमिट कीर्ति बनी हुई है। उनके द्वारा स्थापित किया हुआ International Red Cross Organization, आज सारे संसार में फ़ैल चुका है।

150 से भी ज्यादा देशो में Red Cross Society, अपने कार्यों में तल्लीन है, जिन्होंने युद्ध और अन्य आपदाओं में तड़पती मानवता की अहर्निश सेवा की है। यह कैसा विरोधाभास है, कि स्वार्थ और अहंकार में चूर होकर, विश्व के कुछ राष्ट्र अपनी संतानों का खून बहाने से गुरेज नहीं करते और पिशाचों जैसा बर्ताव करते हैं, वहीं दूसरी ओर Jean Henry Dunant जैसे इंसान है, जो दूसरों की पीड़ा मिटाने के लिए तिल-तिल मरते है।

Red Cross जिसका मुख्यालय जेनेवा में ही हैं, आज भी इस महान इन्सान के ऊँचे सपनों को साकार करने में लगा हुआ है। Geneva और दूसरे कई स्थानों में, उनके नाम पर कई गलियों और स्कूलों का नामकरण हुआ है। उनकी स्मृति में हर 2 वर्ष बाद International Red Cross द्वारा दिया जाने वाला Henry Dunant Medal इसका सबसे बड़ा सम्मान है।

Story of A Successful Person in Hindi में एक कामयाब इंसान की गाथा का वर्णन करने के लिये हमने इस महान व्यक्ति का ही चुनाव क्यों किया, यह आप समझ ही गये होंगे। इस महापुरुष के प्रति हमारी बस यही श्रद्धांजलि हो सकती है कि हम सभी Universal Brotherhood (विश्व-बंधुत्व) की भावना का विकास करे और उनके त्याग को पूर्णता तक पहुंचाए।

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“जो महान होते है, उन्हें दूसरों की विपत्ति में अपनी विपत्ति का विचार नहीं रहता।”
– शरतचंद

 

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