True Friendships Stories in Hindi from History

 

“मित्रता को स्वार्थ के तराजू पर तौलकर इसका अपमान मत करिये, बल्कि स्वयं को इस संबंध के लायक बनाइये। दोस्ती एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे ख़रीदा या बेचा नहीं जा सकता है, लेकिन इसकी कीमत सोने के किसी पहाड़ से कहीं ज्यादा है।”
– पवन प्रताप सिंह

 

True Friendships Stories in Hindi from History

Friendship Story in Hindi मित्रता को नया आयाम देने वाले सच्चे मित्र

Friendship Day के इस पवित्र दिवस पर, Friendship Stories in Hindi में आज हम आपको इतिहास के उन सर्वश्रेष्ठ दोस्तों और उनकी अप्रतिम दोस्ती की कहानियों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनके कारण स्वयं मित्रता के गौरव में चार चाँद लग गये थे और यह संबंध अपनी अकृत्रिम चमक और विश्वसनीयता को इस प्रकार अक्षुण्ण रख सका कि मित्रता की भावना आज भी हर ह्रदय में जिन्दा है। एक ही परिवार या कुल में जन्मे सदस्यों के बीच स्नेह, मैत्री और सहयोग की भावना होना स्वाभाविक है।

लेकिन दो ऐसे व्यक्ति जिनका पहले से कोई आपसी रक्त सम्बन्ध न रहा हो, और जो अलग-अलग वंश, परंपरा और परिवेश में पले-बढ़ें हों, पर फिर भी जिनके बीच में आत्मीयता, स्नेह, निष्ठा और सहयोग की भावना इतनी प्रबल हो कि जब कभी उनका मन एक विश्वसनीय साथी के सतत साहचर्य के लिये बेचैन हो, तब उन्हें सर्वप्रथम सिर्फ उसी व्यक्ति का ख्याल आये, तो तब वह संबंध सिर्फ एक संबंध नहीं रह जाता है।

बल्कि जीवन की एक ऐसी अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है जिसके बिना हमारा अपना अस्तित्व अधूरा सा प्रतीत होने लगता है। प्रायः परिवार की परिधि से बाहर ही पनपने वाले इस अद्भुत संबंध को ही हम मित्रता कहते हैं जो भावों की एकता से शुरू होता है और विश्वास बने रहने तक स्थायी रहता है।

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Story of True Friends in Hindi सच्चे मित्रों की कहानियाँ

इतिहास में एक मिथक के रूप में दर्ज हो चुके उन सभी लोगों की मित्रधर्म के प्रति इस अपूर्व त्याग और निष्ठा को हम नमन करते हैं जिनके नाम आज प्रायः बिसार से दिये गये हैं। वैसे तो दुनिया में एक से बढ़कर एक दोस्त हुए हैं, जिनकी मित्रता की बेमिसाल कहानियाँ अलग-अलग जगहों पर अनेकों रूपों में सुनी जाती हैं।

पर दोस्ती की कुछ कहानियों की आभा इतनी देदीप्यमान है कि वक्त भी उनकी चमक को धुंधला नहीं कर पाया है और जो हजारों वर्षों से एक अमिट गाथा बनकर लोगों के दिलों में गहराई तक उतर गयी हैं। नये जमाने की किसी भी दोस्ती की चर्चा इस लेख में नहीं की गयी है, क्योंकि मित्रता का बहुत ऊँचा आदर्श आज दृष्टिगोचर नहीं होता।

मित्रता के उच्चतम आदर्श को ध्यान में रखते हुए हमने 7 True Friendship Stories in Hindi में सिर्फ ऐसे ही मित्रों का चुनाव किया है जो अपने दोस्त की खुशी के लिये अपने हर सुख-चैन को छोड़ सकते थे। यहाँ तक कि वह अपनी सबसे प्रिय वस्तु और अपनी जान तक को उनके लिये न्योछावर कर सकते थे।

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Famous Friendship Stories in Hindi

1. Friendship Story of Shrikrishna and Arjuna श्रीकृष्ण और अर्जुन

Hindi Friendship Story 1: जब भी कहीं मित्रता की मिसाल का जिक्र होता है तब श्रीकृष्ण और अर्जुन की अपूर्व दोस्ती की चर्चा सबसे पहले होती है। दोनों मित्रों के ह्रदय में एक दूसरे के प्रति कितना सम्मान, आदर और स्नेह था, इसे महाभारत का प्रत्येक पाठक जानता है। भले ही दोनों का जन्म प्रसिद्ध राजवंश में हुआ था लेकिन फिर भी उन्हें सारा जीवन संघर्षों से जूझना पड़ा। इस कारण से उन्हें एक-दूसरे का सामीप्य पाने का अवसर भी अधिक नहीं मिला, लेकिन मित्रता को सतत समीपता की चाह नहीं है, बल्कि वह तो स्नेह और निष्ठा के आधार पर टिकी है।

अर्जुन स्वयं को श्रीकृष्ण का सिर्फ मित्र ही नहीं, बल्कि सेवक भी समझते थे और यही भाव श्रीकृष्ण के मन में भी था, तभी तो उन्होंने राजा होते हुए भी युद्ध में अर्जुन का सारथी बनने जैसा छोटा समझे जाने वाला कार्य भी किया। दोनों मित्रों की जुगलबंदी का परिचय कई अवसरों पर मिलता है, जैसे – खांडव वन को दोनों मित्रों ने जलाया, जबकि उसकी रक्षा का दायित्व उस इन्द्र पर था जिसके अंश से अर्जुन का जन्म हुआ था और जिसे वह अपना ही पुत्र मानते थे।

लेकिन उनकी बात मानने के स्थान पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के पक्ष में ही रहकर युद्ध किया। इसी तरह अर्जुन ने कई अवसरों पर श्रीकृष्ण के शत्रुओं को सिर्फ इसीलिये पराजित किया, क्योंकि वह भगवान कृष्ण से शत्रुता मानते थे, हालाँकि अर्जुन से उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी। श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन और उनके समस्त परिवार की रक्षा का भार अपने ऊपर ले रखा था।

महाभारत के उस भीषण महासमर में जिसमे भीष्म पितामह, कर्ण, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा जैसे अजेय सूरमा थे और जिन्हें देवता भी जीतने की कल्पना नहीं कर सकते थे, श्रीकृष्ण ने अर्जुन और अपने भक्त धर्मरुढ पांडवों की विजय के लिये पराजित करवा दिया। भगवान कृष्ण ने अर्जुन के लिये क्या-क्या नहीं सहा?

अमोघ वैष्णवास्त्र की चोट स्वयं सही, कर्ण और दूसरे महारथियों के घातक तीर सहे और सारथि बनने जैसा निंदनीय कर्म भी किया। उनकी इस मित्रता को देखकर ही श्री व्यास जी महाराज ने अर्जुन और कृष्ण को दो शरीर एक प्राण कहा है। अब आप ही बताइये क्या ऐसी फ्रेंडशिप स्टोरी आपने कहीं और सुनी है? भगवान श्रीकृष्ण का पांडवों पर कितना प्रेम था, इसका हमने दूसरे लेख में वर्णन किया है। विस्तारभय से यहाँ अधिक नहीं दिया गया है।

2. Friendship Story of Karna and Duryodhana कर्ण और दुर्योधन

Hindi Friendship Story 2: महाभारतकालीन समय इस दृष्टि से भी अनूठा है कि इतिहास की दो सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली मित्रता भी इसी युग में ही पनपी थीं। जहाँ एक ओर कृष्ण और अर्जुन की निश्चल मित्रता का उदय हो रहा था, तो वहीँ दूसरी ओर कर्ण और दुर्योधन की विचित्र स्वार्थ से भरी मित्रता भी परवान चढ़ रही थी। अर्जुन और कृष्ण की मित्रता जहाँ अकृत्रिम स्नेह, उच्च आदर्शवादिता और सद्गुणों के आलंबन पर टिकी थी तो वहीँ कर्ण और दुर्योधन की मित्रता अवसरवादिता और स्वार्थ के अबूझ गठबंधन के बल पर दृढ हुई थी।

दुर्योधन ने अवसर को भाँपते हुए एक लज्जित और वीर नवयुवक को अपना मित्र बनाकर और अपने राज्य का एक भाग देकर सदा के लिये अपने पक्ष में कर लिया, तो वहीँ कर्ण को भी बिन माँगे वह सब कुछ मिल गया जिसकी उसे सदा से आकाँक्षा थी। लेकिन अपनी-अपनी स्वार्थपूर्ति की तलाश में पनपी इस दोस्ती को कर्ण के समर्पण ने एक अलग ही स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया, अन्यथा कौन जाने इसका क्या स्वरुप होता?

कर्ण ने दुर्योधन के लिये हर प्रकार से पांडवों से बैर मोल लिया और जब-जब उसने कर्ण से उनके विरूद्ध युद्ध लड़ने को कहा तब-तब वह लड़ा। महाभारत के युद्ध से ठीक पहले श्रीकृष्ण ने उसे बता दिया था कि वह पांडवों का बड़ा भाई है और वचन दिया था कि अगर वह उनकी ओर से युद्ध करेगा तो जीतने पर बड़ा होने के नाते राज्य उसे ही मिलेगा, पर फिर भी उसने दुर्योधन का त्याग नहीं किया, क्योंकि उसकी दृष्टि में मित्रद्रोह से लज्जाजनक बात और कोई हो ही नहीं सकती थी।

भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य की तरह कर्ण भी जानता था कि श्रीकृष्ण के कारण पांडवों की विजय सुनिचित है, लेकिन फिर भी उसने विशाल राज्य पाने की अपेक्षा मित्र के कार्य के लिये हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिये और मित्रधर्म के उज्जवल यश की आभा सारे संसार में फैला गया। अपनी अनोखी दानशीलता के कारण दानवीर कर्ण के नाम से जगद्विख्यात हुआ कर्ण एक सच्चे मित्र के रूप में भी इतिहास में सदा के लिये अमर हो गया।

3. Friendship Story of Shriram and Vibhishana श्रीराम और विभीषण

Hindi Friendship Story 3: मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्रबल इतना ऊँचा है कि पृथ्वी पर जन्मा कोई दूसरा मनुष्य आदर्शवादिता और सैद्धांतिक निष्ठा का इतना उच्च प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकता है। इसी कारण से उन्हें अवतार की संज्ञा दी गयी और ईश्वरतुल्य माना गया। रामायण में श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता की बड़ी चर्चा होती है, लेकिन कदाचित इसका गौरव श्रीराम और विभीषण की मित्रता की तुलना में कुछ कम ही ठहरता है, क्योंकि जहाँ श्रीराम ने सुग्रीव को मित्र मानकर उसे तुरंत ही बालि की अधीनता से मुक्त कराकर राजा बना दिया था।

वहीँ सुग्रीव महीनों तक श्रीराम के कार्य को भूला रहा और श्रीलक्ष्मण के भय दिखाने पर ही उसे मित्रधर्म की सुध आयी। जबकि श्रीराम और विभीषण का संबंध बड़ा ही दिव्य था। श्रीराम ने लंकेश रावण के परित्यक्त भाई को जो अपना सारा सम्मान गँवा चुका था, न सिर्फ अपना मित्र बनाया बल्कि लंका का भावी राजा भी घोषित कर दिया। जहाँ राजा बनते ही सुग्रीव अपने मित्र को भूल गया था, वहीँ विभीषण हर समय श्रीराम की सहायता करने को तत्पर रहे।

श्रीराम के पास आते समय उनके मन में राज्य की कोई कामना नहीं थी। वह तो सिर्फ लंका की निर्दोष प्रजा की रक्षा का आश्वासन चाहते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि रावण के कुकर्मों का दंड कहीं श्रीराम राज्य की जनता को न दे दें। इसके अलावा उनकी सलाह पर ही श्रीराम ने रावण से दोबारा संधि वार्ता के लिये अंगद को भेजा, क्योंकि विभीषण अपने बड़े भाई को मारना नहीं चाहते थे।

मित्रधर्म के लिये विभीषण ने जिस तरह अपने शक्तिशाली भाई से दुश्मनी मोल ली वह निःसंदेह स्तुत्य है। विभीषण के कारण ही हनुमान सुषेन वैद्य को ला पाए थे और लक्ष्मणजी के प्राण बचे थे, उन्होंने ही अतिकाय और मेघनाद को मारने में राम-लक्ष्मण की सहायता की थी और उनके ही कारण रावण की मृत्यु का रहस्य पता लग पाया था। पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ विभीषण ने ही मित्रधर्म का निर्वाह किया हो।

श्रीराम ने भी उस समय मित्रता की सारी सीमाएँ लाँघ दी थी जब रावण ने विभीषण को मारने के लिये एक भीषण शक्ति चलायी थी और कोई निवारण न होने पर श्रीराम ने विभीषण के आगे खड़े होकर उसे अपने ही सीने पर सह लिया था। उनके इस निश्चल प्रेम और भक्तवत्सलता को देखकर विभीषण की आँखे आँसुओं से डबडबा जाती है।

वह यह सोचने लगते हैं कि कहाँ तो मेरा ही सहोदर भाई मुझे लगातार अपमानित करने के साथ-साथ मेरी मृत्यु के लिये भी प्रयासरत है, और कहाँ श्रीराम जैसा मित्र जिन्होंने एक बार मित्र कहने पर ही मेरे लिये अपने प्राणों को संकट में डाल दिया। निश्चित रूप से श्रीराम और विभीषण की मित्रता अतुलनीय ही है, क्योंकि वह इन्सान मित्र कहलाने लायक नहीं है जो मित्र के संकट को अपनी विपत्ति न समझे। निःसंदेह एक अनुपम फ्रेंडशिप स्टोरी!

4. Friendship Story of Hanuman and Sugreeva हनुमान और सुग्रीव

Hindi Friendship Story 4: रामायणकाल में पारिवारिक आदर्शों और मानवीय मूल्यों का बहुत ही उच्च स्तर देखने में आया है और मित्रधर्म के संबंध में तो कई जगह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इतिहास की सर्वश्रेष्ठ मित्रताएँ इसी युग में ही पनपी हों। इस श्रंखला में हम श्रीराम और निषादराज गुहा की पवित्र मैत्री का उल्लेख कर सकते हैं, जहाँ निषादराज श्रीराम की सेवा करने के लिये वन में ही रुक जाना चाहता है। यहाँ तक कि रामजी की सुरक्षा के लिये वह भरत से युद्ध करके (भ्रम के कारण) मृत्यु को गले लगाने का भी साहस रखता है।

इसके पश्चात श्रीराम और सुग्रीव और श्रीराम और विभीषण की मित्रता भी अत्यंत ही उच्चकोटि की मित्रता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। लेकिन इस काल की एक मैत्री ऐसी भी है जिसका उल्लेख विद्वानों ने कम ही किया है और उसका कारण आसानी से समझा भी जा सकता है, क्योंकि पूरी रामायण श्रीराम, रावण और देवी सीता के इर्द-गिर्द्ध ही घूमती है।

आज हम इस काल की एक ऐसी ही विस्मरण कर दी गयी मैत्री का उल्लेख कर रहे हैं जिसकी धुरी दो वानर वीर थे। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं महावीर हनुमान और वानरराज सुग्रीव की मित्रता की। केसरीनंदन हनुमानजी और सुग्रीव दोनों ही बचपन के मित्र थे और मित्रता का यह सम्बन्ध उनकी आयु बढ़ने के साथ-साथ परवान चढ़ता गया।

जब सुग्रीव को उसके अतुलित बलशाली भाई बाली ने राज्य से बाहर निकाल दिया तब वह हनुमानजी ही थे जो अपने मित्र की सहायता करने के लिये अपने पिता का राज्य छोड़कर उसका साथ देने चले आये थे। वर्षों तक श्रीहनुमान ने सुग्रीव की सेवा और सुरक्षा का भार संभाले रक्खा था। श्रीराम और सुग्रीव की मैत्री कराकर हनुमान ने ही उसे बाली के आतंक से मुक्त कराया और राज्य वापस दिलाया।

जब सुग्रीव के अपने वचन को भुला देने के कारण लक्ष्मण का क्रोध जाग उठा था, तब हनुमानजी ने ही सुग्रीव और राज्य की रक्षा की थी। इसके पश्चात लंका युद्ध में भी हनुमानजी कई बार सुग्रीव की रक्षा करते हैं। महावीर हनुमान जी की निश्चल मित्रता और अपने प्रति स्नेह को देखकर सुग्रीव हमेशा उनके प्रति कृतज्ञ बने रहते हैं। (इस मित्रता की पुष्टि स्वयं हनुमान महाभारत में भीम के साथ संवाद करते समय करते हैं।)

समस्त वानर जाति के एकछत्र सम्राट होने के बावजूद वह हनुमानजी को हमेशा एक सच्चे मित्र के ही रूप में देखते हैं और उनकी प्रत्येक बात का आँख मूंदकर अनुमोदन करते हैं। इसका पता तब चलता है जब विभीषण लंका छोड़कर श्रीराम की शरण में आते हैं और आश्रय मांगते हैं, लेकिन सुग्रीव शत्रु का भाई होने के कारण उसे कैद कर लेना चाहते हैं। तब हनुमानजी के कहने पर ही सुग्रीव अपने उस विचार को टालते हैं और श्रीराम की बात का समर्थन करते हैं।

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Real Friendship Stories in Hindi

5. Friendship Story of Prithviraj and Chandbardai पृथ्वीराज चौहान और चन्दबरदाई

Hindi Friendship Story 5: मध्यकाल में एक शक्तिशाली राजपूत नरेश के रूप में प्रसिद्ध रहे पृथ्वीराज चौहान के बारे में लगभग हर भारतीय जानता है। मुहम्मद गौरी के साथ हुए युद्ध में छल से मिली हार के अलावा पृथ्वीराज ने अपने समूचे जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा था। पृथ्वीराज की जीवन गाथा का वर्णन उसके राजदरबारी रहे भाट कवि चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में बड़े ही सुन्दर शब्दों में किया है। पर कम ही लोग जानते हैं कि चंदबरदाई सिर्फ एक राजदरबारी या कवि ही नहीं थे, बल्कि पृथ्वीराज चौहान के परम मित्र भी थे।

चन्दबरदाई के जन्म और परिवार से सम्बंधित तथ्य अधिक स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन यह सत्य है कि वह किसी कुलीन या सामंती परिवार से नहीं थे। फिर भी उनकी एक राजा के साथ मैत्री किस प्रकार हुई यह बात आश्चर्यचकित करने वाली है। दरअसल बात यह है कि पृथ्वीराज चौहान और चन्दबरदाई बचपन के मित्र थे। जहाँ पृथ्वीराज को चन्दबरदाई के बुद्धि कौशल और काव्य प्रतिभा ने आकर्षित किया, तो वहीँ चन्दबरदाई को पृथ्वीराज की सरलता और तेजस्विता ने आकर्षित किया।

उनकी मित्रता इतनी घनिष्ठ थी कि चन्दबरदाई को पृथ्वीराज के महल में किसी भी समय आने-जाने का अधिकार था। यहाँ तक कि पृथ्वीराज चौहान द्वारा लडे गये प्रत्येक युद्ध में चन्दबरदाई भी साथ ही रहते थे। पृथ्वीराज-संयोगिता के स्वयंवर में भी चन्दबरदाई साथ ही गये थे और जब अपने जीवन के अंतिम युद्ध में पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी ने छल से बंदी बना लिया था तब भी चन्दबरदाई उनके साथ ही थे।

चन्दबरदाई के गूढ और अस्पष्ट कथन का मर्म समझकर ही पृथ्वीराज ने वह शब्दवेधी बाण चलाया था जिसके कारण गौरी मरने से बाल-बाल बचा था। दुश्मन की कैद में पड़े रहकर तड़प-तड़पकर मरने से हजार गुना ज्यादा बेहतर है कि वीरोचित तरीके से मरा जाय, इस सिद्धांत में निष्ठा रखने वाले इन दोनों वीर मित्रों ने एक-दूसरे को चाकू घोंपकर मृत्यु का वरण कर लिया था।

जिस तरह दोनों मित्र जीते जी साथ रहे, ठीक उसी तरह मृत्यु का आलिंगन भी दोनों ने एक साथ ही किया। लेकिन मौत भी शायद उनकी दोस्ती को नहीं मार सकी और यह फ्रेंडशिप स्टोरी भी सदा-सदा के लिये अमर हो गयी।

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6. Friendship Story of Sri Chaitanya and Raghunath चैतन्य महाप्रभु और पंo रघुनाथ

Hindi Friendship Story 6: श्रीचैतन्य महाप्रभु को कौन नहीं जानता? मध्यकाल के एक उच्चकोटि के वैष्णव संत के रूप में प्रसिद्ध रहे श्रीचैतन्य महाप्रभु के द्रवित कर देने वाले दिव्य कीर्तन रस में डूबकर तो हिंसक पशु-पक्षी तक झूमने लग जाते थे। भारत के चार प्रसिद्ध धामों में से एक पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर की जो ख्याति आज सारी दुनिया में फैली हुई है उसका बड़ा श्रेय चैतन्य महाप्रभु को ही जाता है। कम आयु में ही भक्ति की पराकाष्ठा का पर्याय बनने वाले यह संत जन्मकाल से ही अत्यंत तीव्र बुद्धि-विवेक से युक्त थे।

यह जितने बुद्धिमान थे उतने ही सुन्दर भी थे। लेकिन चरित्र और सौंदर्य की उच्च दौलत होते हुए भी इस महान संत में लेशमात्र भी अहंकार नहीं था, जो इस घटना के माध्यम से प्रकट होता है – चैतन्य महाप्रभु का बचपन का नाम निमाई था। इनका जन्म पश्चिम बंगाल के नवद्वीप में हुआ था। जब यह सोलह वर्ष के हुए तब व्याकरण की शिक्षा समाप्त करके इन्होने न्यायशास्त्र का विशद अध्ययन किया और उस पर एक अद्भुत ग्रन्थ लिखा।

उन्ही दिनों इनके मित्र और सहपाठी रघुनाथ पंडित भी न्यायशास्त्र पर अपना ग्रन्थ ‘दीधिति’ लिख रहे थे जिसे आज भी इस विषय का एक प्रख्यात ग्रन्थ माना जाता है। जब पंडित रघुनाथजी को पता लगा कि निमाई भी न्यायशास्त्र पर कोई ग्रन्थ लिख रहे हैं तो उन्होंने उस ग्रन्थ को देखने की इच्छा प्रकट की। अगले दिन निमाई अपना ग्रन्थ साथ लेते आये और पाठशाला जाते समय जब दोनों मित्र नाव पर बैठे तो निमाई वहीँ बैठकर अपना ग्रन्थ सुनाने लगे।

उस ग्रन्थ को सुनने से पंडित रघुनाथ को बड़ा दुःख हुआ। उनकी आँखों से आँसुओं की बूँदे टपकने लगी। जब चैतन्य महाप्रभु ने अपने मित्र रघुनाथ को रोते देखा तो वह आश्चर्यचकित होकर उनसे रोने का कारण पूछने लगे? रघुनाथ ने सहज भाव से उत्तर दिया – “मैंने यह सोचकर इस ग्रन्थ की रचना की थी कि यह न्यायशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ माना जायेगा, लेकिन तुम्हारे इस उच्चकोटि के असाधारण ग्रंथ के सामने मेरे ग्रन्थ को कौन पूछेगा?”

बस मित्र इतनी सी बात के लिये इतना दुखी हो रहे हो – निमाई ने हँसते हुए कहा। चिंता मत करो तुम्हारा ही ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ समझा जायेगा। इससे पहले कि रघुनाथ कुछ कह पाते निमाई ने अपना वह असाधारण ग्रन्थ, जो यदि आज उपलब्ध हो पाता तो निश्चय ही अपनी श्रेणी के सर्वोत्तम ग्रंथों में से एक होता, गंगाजी में प्रवाहित कर दिया। कुछ पलों तक तो रघुनाथ पंडित के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।

क्योंकि नदी के वक्ष पर तैरते पृष्ठों को देखकर वह स्तब्ध रह गये थे, पर जब उन्हें चेत हुआ तब अपने मित्र के उस महान त्याग को देखकर वह उनके चरणों पर गिर पड़े, लेकिन निमाई ने उन्हें ह्रदय से लगा लिया। अब आप ही बताइये इतिहास में और ऐसे कितने मित्र होंगे जो मित्रता की वेदी पर अपनी विद्वत्ता और अपार यश की भेंट चढ़ा सकें और फ्रेंडशिप की ऐसी कितनी स्टोरी होंगी जिन्हें आप याद रख सकें?

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7. Friendship Story of Bh. Harischandra and Ramdeen भारतेंदु हरिश्चंद्र और रामदीन सिंह

Hindi Friendship Story 7: हिंदी भाषा को उसका खोया गौरव दिलाने वाले और हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम से तो स्कूली बच्चे तक परिचित होंगे। बेहद उदार और अत्यंत सरल स्वभाव वाले भारतेंदुजी की मित्रता खडगविलास प्रेस के संस्थापक बाबू रामदीन सिंहजी से थी। भारतेंदुजी के उदार स्वभाव की अनेकों कहनियाँ प्रचलित हैं। अपने इस फक्कड़ स्वभाव की वजह से वह अक्सर ऋणग्रस्त हो जाते थे। हालाँकि उनके पास काफी संपत्ति थी, पर मुक्तहस्त बाँटने पर तो एक दिन कुबेर का खजाना भी खाली होना तय है।

इस तरह बाँटते रहने से उनकी सारी संपत्ति चली गयी। यहाँ तक कि एक धनी सज्जन के डेढ़ लाख रुपयों का कर्ज भी उन पर चढ़ गया था, लेकिन इसकी चर्चा उन्होंने अपने परिवार के किसी भी सदस्य से नहीं की। एक दिन बातों ही बातों में हरिश्चंद्रजी ने इस ऋण की चर्चा अपने परम मित्र रामदीन सिंहजी से की और कहने लगे – “जिनका रुपया है वह सज्जन भी कभी मुझसे पैसा मांगने नहीं आये, इस कारण से मुझे यह कर्जा नहीं चुकाने का और भी ज्यादा दुःख है।”

रामदीन सिंहजी भारतेंदुजी के फक्कड़ स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे। अपने मित्र की शोचनीय स्थिति देखकर वह बोले – “अच्छा, तो यह कर्ज चुकाना मेरे जिम्मे रहा, अब आप इसकी बिल्कुल भी चिंता न करें और सिर्फ अपने लेखन कार्य पर ही ध्यान दें। बाबू रामदीन सिंहजी के मुँह से डेढ़ लाख कर्ज चुकाने की बात सुनकर लाखों की संपत्ति लुटा देने वाले भारतेंदुजी की आँखे नम हो गयीं।

अपने मित्र की इस अविश्वसनीय सी प्रतीत होने वाली मदद पर उन्हें अभी तक विश्वास नहीं हो रहा था। क्योंकि डेढ़ लाख की रकम कोई छोटा-मोटा कर्ज नहीं था। आखिरकार यह आज से 125 साल पुरानी तब की बात है जब सिर्फ दो रूपये में सेर भर घी मिल जाया करता था। महान व्यक्ति छोटी से छोटी सेवा के प्रति भी बहुत कृतज्ञ होते हैं फिर जो इतना उपकार करे उस मित्र के प्रति कैसे कृतज्ञता व्यक्त करें।

भावावेश की इसी दशा में भारतेंदुजी ने एक कागज़ पर कुछ शब्द लिखकर रामदीन सिंहजी के हाथों में थमा दिया जिस पर लिखा था – “मेरी सभी पुस्तकों (175) के प्रकाशन का अधिकार सिर्फ खडगविलास प्रेस को ही है।” बाबू रामदीन सिंह जी ने उस पर्चे को पढ़कर वहीँ पर फाड़कर फेंक दिया और भारतेंदुजी से बोले – “मित्र! यह तो मित्रता निभाना नहीं हुआ, व्यापार हुआ।” यह कहकर दोनों मित्र एक दूसरे के गले लग गये।

धन्य है ऐसे मित्र जो मित्र के दुःख को अपना ही दुःख मानें, उसकी जिम्मेदारियों को अपनी ही जिम्मेदारी समझें और धन्य है ऐसी मित्रता जो रिश्तों के आकाश में चन्द्रमा की तरह अपनी उज्जवल प्रभा से चमक रही है और संसार को एक सन्देश दे रही है। क्या आपको नहीं लगता कि फ्रेंडशिप की यह सभी स्टोरी दिल को छू लेने वाली और बेहद प्रेरणादायक हैं? यदि हाँ तो इस लेख को शेयर करें।

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“इस धरती पर कुछ भी इतना कीमती नहीं है जितनी कि सच्ची दोस्ती।”
– अज्ञात

 

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