Best Chanakya Niti Principles in Hindi

 

“इस दुनिया में ऐसा कौन इन्सान है जिसके कुल में कोई न कोई बुराई न हो; इस संसार में ऐसा कौन है जो कभी किसी रोग से न पीड़ित हुआ हो; इस दुनिया में ऐसा कौन है जिसे कभी किसी चीज के व्यसन (नशे) ने न घेरा हो और इस दुनिया में ऐसा कौन है जिसे हमेशा सुख ही मिला हो, अर्थात ऐसा कोई इंसान नहीं है।”
– चाणक्य

 

Best Chanakya Niti Principles in Hindi
चाणक्यनीति के गुप्त रहस्य जिन्हें आप पहले से नहीं जानते होंगे

Chanakya Niti in Hindi चाणक्य नीति के सिद्धांत

शायद ही संपूर्ण भारत में ऐसा कोई शिक्षित व्यक्ति हो जो आचार्य चाणक्य के नाम से परिचित न हो। एक असाधारण विद्वान्, परम चतुर व्यक्ति, महान कूटनीतिज्ञ, एक महान वंश के संस्थापक और एक निस्पृही ब्राहमण के रूप में उनका बहुयामी व्यक्तित्व आज भी भारतीय जनमानस के लिये आदर्श है। अपने बुद्धिबल और अचूक कूटनीति से ही उन्होंने एक आततायी राजवंश का अंत करके एक ऐसे राजवंश की स्थापना की जो सच्चे अर्थों में प्रजा का हितैषी था।

उनके ही प्रयासों से भारत पर विदेशियों का आधिपत्य स्थापित न होने पाया। संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध अपनी अद्भुत कृति ‘चाणक्यनीति’ (Chanakya Niti in Hindi) में उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन का ज्ञान भर दिया है। जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसका विवरण इस पुस्तक में न हो। Chanakya Niti के सूत्र पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि कैसे उन्होंने इन सूक्ष्म बातों की परीक्षा की होगी। कई बातें तो बिल्कुल अबूझ और रहस्यमय ही प्रतीत होती हैं।

जिन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि यदि आचार्य चाणक्य जैसे विद्वान् ने इनका वर्णन न किया होता, तो शायद ही कोई उन बातों पर विश्वास करता। चूँकि उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी वह उस समय थीं, इसीलिये हमें यह उचित प्रतीत होता है कि संपूर्ण “चाणक्यनीति” के सूत्रों को विषयानुसार जीवनसूत्र के पाठकों के समक्ष रखा जाय ताकि वे भी उनसे लाभ उठा सकें।

Chanakya Niti Sutra in Hindi आचार्य चाणक्य के सूत्र

क्योंकि मूल पुस्तक में जो सत्रह अध्याय दिए गये हैं, उनमे एक ही अध्याय में अनेकों विषयों का वर्णन है, जिससे एक ही विषय से संबंधित समस्त सूत्रों का ज्ञान हो पाना असंभव है। लेकिन हमारी ओर से यही प्रयास रहा कि अपने पाठकों को एक ही स्थान पर Chanakya Niti के सभी सूत्रों का व्याख्या सहित अनुवाद उपलब्ध करवाया जाय, जिससे उन्हें इधर-उधर न भटकना पड़े।

पर यह कार्य अत्यंत दुष्कर था, क्योंकि इसके लिये संपूर्ण चाणक्यनीति का अध्ययन कर अलग-अलग दिए सूत्रों को एक स्थान पर इकठ्ठा करना था, इसलिये काफी अधिक समय लग गया। कुछ सूत्र ऐसे भी रहे जो विलक्षण थे और जिन्हें किसी अन्य विषय के साथ नहीं दिया जा सकता था। Chanakya Niti के ऐसे सूत्रों को हमने इस लेख और इससे अगले लेख में देने का निश्चय किया है।

बाकी को विषयानुसार अलग-अलग लेखों में बाँट दिया गया है, जिससे पढने में आसानी रहे। इस कार्य में निश्चित ही कुछ भूलें रहीं होंगी जिनके लिये हम क्षमाप्रार्थी हैं। यदि वें आपकी दृष्टि में आयें, तो कृपया उनकी ओर ध्यान दिलाने की कृपा करें। आशा है आचार्य चाणक्य का यह महान नीति ग्रन्थ अवश्य ही आपके लिये उपयोगी सिद्ध होगा –

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Chanakya Niti Formulas in Hindi

Chanakya Niti Formula 1 चाणक्य नीति मंत्र

1. नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः।
नास्ति कोपसमो वहिनर्नास्ति ज्ञानात्परं सुखम्॥

अर्थ – इस जगत में कामवासना के समान भयंकर कोई रोग नहीं है; मोह के जैसा प्रबल कोई शत्रु नहीं है; क्रोध के जैसी प्रचंड कोई अग्नि नहीं है; और ज्ञान के जैसी सुख देने वाली चीज भी कोई नहीं है। आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में काम, क्रोध, मोह और ज्ञान की प्रबलता सिद्ध की है।

घातक से घातक शारीरिक रोग औषधि और चिकित्सा से अच्छा हो सकता है, लेकिन कामवासना का रोग लाइलाज है। क्योंकि इसमें कोई बाहरी औषधि काम नहीं करती। इस रोग की जड़, स्त्रियों के प्रति घोर आसक्ति के रूप में, मनुष्य के मन में ही बसी रहती है। इस रोग को केवल मन का पूर्ण संयम करके ही दूर किया जा सकता है और यदि समय रहते इस पर नियंत्रण न किया जाय, तो यह मनुष्य के शरीर को खोखला करके, उसे पूरी तरह अशक्त बना देती है।

इस संसार में मोह के जैसा दुर्जय शत्रु कोई नहीं है। क्योंकि यह व्यक्ति की विवेक शक्ति को कुंठित कर उसे अंधा (विचारशून्य) बना देता है। तब व्यक्ति को सिर्फ अपना स्वार्थ सूझता है। आदर्श, सिद्धांत, धर्म और न्याय की सभी बातें उस समय बेमानी हो जाती हैं। क्रोध एक ऐसी प्रचंड अग्नि है जो किसी और को नहीं, बल्कि अपने उत्पत्तिकर्ता को ही तिल-तिल जलाती और नष्ट करती रहती है।

जिस समय मन में क्रोध उपजता है, उस समय व्यक्ति बिल्कुल मूढ़ हो जाता है। उसका ज्ञान, बुद्धि और विवेक एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। शरीर का बल तेजी से घटने लगता है और वह ऐसा कार्य कर बैठता है जिसे करने के पश्चात वह लम्बे समय तक रात-दिन दुःख की आग में जलता है।

ज्ञान (Knowledge) के समान इस दुनिया में तो क्या ब्रह्माण्ड में भी कोई सुख नहीं है। ज्ञानरुपी सूर्य के उगते ही समस्त संदेहों, चिंताओं और पापों का नाश हो जाता है। चेतना पर छाया सारा अँधियारा दूर हो जाता है और व्यक्ति आनंद के सागर में डूब जाता है।

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Chanakya Niti Formula 2 चाणक्य नीति मंत्र

2. शैले शैले न मानिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥

अर्थ – जैसे हर पर्वत पर मणि व माणिक्य प्राप्त नहीं होते; उसी तरह प्रत्येक हाथी के मस्तक से गजमुक्ता मणि प्राप्त नहीं होती। जैसे हर जगह सज्जन पुरुष नहीं मिलते; उसी तरह सभी वनों में चन्दन नहीं मिलता।

इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य हमें यह बताना चाहते हैं कि बेशकीमती चीज़ें हर जगह और आसानी से नहीं मिलतीं, बल्कि किसी विशेष स्थान पर ही वह उपलब्ध हो सकती हैं। जिस तरह माणिक्य, गजमुक्ता और चन्दन कीमती वस्तुएँ हैं, उसी तरह सज्जन और गुणवान पुरुष भी आसानी से नहीं मिलते।

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Chanakya Niti Formula 3 चाणक्य नीति मंत्र

3. नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गंधलेपनम्।
आत्मरूपं जले पश्यन् शक्रस्यांपि श्रियं हरेत्॥

अर्थ – नाई के घर जाकर हजामत बनवाने वाला, पत्थर की देव प्रतिमाओं पर चन्दन का लेप लगाने वाला और जल में अपनी ही परछाई देखने वाला व्यक्ति चाहे वह इंद्र के समान ही प्रतिष्ठित और संपन्न क्यों न हो, शीघ्र ही शोभाहीन हो जाता है।

संसार में कुछ काम ऐसे होते हैं जिन्हें करने से न केवल आदमी की बुराई होती है, बल्कि कभी-कभी तो उसका भविष्य तक बिगड़ जाता है। इस श्लोक में आचार्य चाणक्य इन्सानों को ऐसे ही कामों से बचने को कहते हैं। कुछ समय पहले तक ऐसा देखने में आता था कि जिन लोगों को अपने बाल कटाने होते थे, नाई उनके घर आकर ही बाल काट जाया करता था, और बदले में धन या अन्न लेकर चला जाता था।

वे स्वयं नाई के घर जाकर बाल नहीं कटाते थे। परम्परा के अनुसार पत्थर की प्रतिमाओं पर चन्दन का लेप नहीं लगाया जाता है, बल्कि सजी सँवरी और तराशी गयी अत्यंत सुन्दर मूर्तियों पर ही चन्दन का लेप किया जाता है। इसके अलावा जल में परछाई देखने को भी बड़े-बुजुर्गों ने बुरा माना है।

क्योंकि इससे भाग्य खराब होता है और उम्र भी कम होती है, फिर चाहे वह व्यक्ति खुद देवताओं के राजा इंद्र जैसा श्रीमंत ही क्यों न हो। अतः प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य का गौरव नष्ट करने वाले इन कार्यों से बचना चाहिये।

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Chanakya Niti Formula 4 चाणक्य नीति मंत्र

4. त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्॥

अर्थ – संपूर्ण कुल की रक्षा के लिए एक व्यक्ति की; संपूर्ण ग्राम की रक्षा के लिए एक कुल की; संपूर्ण प्रदेश की रक्षा के लिए एक ग्राम की; और अपनी रक्षा के लिए संपूर्ण पृथ्वी का भी त्याग करना पड़े, तो निःसंकोच कर देना चाहिये।

इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य जीवन और त्याग के महत्व के बारे में बताते हैं। एक से अनेक का महत्व अधिक है, इसीलिये अगर सिर्फ एक व्यक्ति का बलिदान देकर भी, पूरे कुल/परिवार को बचाया जा सके तो निःसंकोच ऐसा करना चाहिये। अगर पूरे परिवार के बलिदान से गाँव या शहर की रक्षा होती हो, तो कुल के बलिदान में सोच-विचार नहीं करना चाहिये।

गाँव से प्रदेश का महत्व अधिक है, इसीलिये अगर गाँव का बलिदान करने से पूरा प्रदेश बचता हो, तो बिल्कुल सोच-विचार नहीं करना चाहिये। लेकिन अगर अपनी सुरक्षा की बात आये तो सारी पृथ्वी छोड़कर भी प्राण बचाने चाहिये, क्योंकि मानव जीवन अनमोल है।

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Chanakya Niti Formula 5 चाणक्य नीति मंत्र

5. धर्मं धनं च धान्यं च गुरौर्वचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति॥

अर्थ – धर्म (यज्ञ-अनुष्ठान, देव पूजा); धन, धान्य(अन्न); गुरु का वचन और औषधि इन पाँच का प्रयोग व्यक्ति को बहुत सोच-समझकर करना चाहिये; अन्यथा गलत प्रयोग के कारण, जीवन तक से हाथ धोना पड सकता है।

चाणक्यनीति के इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने शक्तिशाली चीजों का समझदारी और बहुत सावधानी से इस्तेमाल करने पर जोर दिया है। क्योंकि अगर ऐसी चीजों का लाभ ज्यादा होता है, तो गलत इस्तेमाल करने से नुकसान भी उतना ही ज्यादा हो सकता है। शास्त्रों में यज्ञ और जप-तप को बहुत शक्तिशाली बताया गया है।

लेकिन अगर इनकी सही विधियों का ज्ञान न हो या इनका गलत उद्देश्य से उपयोग किया जाय तो अपने प्राण तक जा सकते हैं। इसी तरह धन-धान्य भी बड़ी ताकतवर चीज है। इनके द्वारा किसी इन्सान को प्रलोभन देकर कोई भी काम कराया जा सकता है। गुरु के वचन सिद्ध और अचूक होते हैं और इनसे कोई भी काम पूरा किया जा सकता है।

लेकिन अगर इनका किसी पर या खुद पर गलत प्रयोग किया जाय तो लेने के देने पड़ सकते हैं। औषधि या दवाई जीवन देने वाली वस्तु होती है, लेकिन अगर इसे अधिक मात्रा में और गलत समय दे दिया जाय, तो इन्सान की जान तक ले लेती है।

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Chanakya Niti Sutra in Hindi

Chanakya Niti Sutra 6 चाणक्य नीति सूत्र

6. उद्योगे नास्ति दारिद्यं जपतो नास्ति पातकं।
मौने च कलहो नास्ति, नास्ति जागरिते भयम्॥

अर्थ – उद्योग करने पर किसकी दरिद्रता दूर नहीं हो सकती; प्रभु का नाम जपने पर किसका पाप नष्ट नहीं हो सकता; चुप रहने पर कौन सा कलह समाप्त नहीं हो सकता और निरंतर जागने पर किसका भय नहीं समाप्त हो सकता। अर्थात सब कुछ दूर हो सकता है।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने Life में आने वाले दुःख-दर्द को दूर करने के अचूक उपाय बताये हैं। यह तो सभी जानते हैं कि निर्धनता या गरीबी को दूर करने का एकमात्र रास्ता कड़ी मेहनत ही है। जो इन्सान लगातार मेहनत करता है, वह न तो कभी गरीब रह सकता है और न ही नाकामयाब हो सकता है। परिश्रम के बिना तो जंगल के राजा शेर को भी भूखे मरना पड़ सकता है।

भगवान का नाम-जप भारी से भारी पापों का विनाशक बताया है। ईश्वर का नाम जपने वाले इन्सान के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, ऐसा शास्त्र वचन है। अनेक ग्रंथों में पापों के प्रायश्चित के लिये भगवन्नाम जप का विधान है।

इस दुनिया के सभी झगड़ों की जड़ है – ईट का जवाब पत्थर से देने की आदत। अगर कोई आदमी दूसरे की एक बात सुनकर चुप रह जाय, तो किसी भी विवाद को बढ़ने से रोका जा सकता है। लेकिन लोगों को बदला लेना ही अधिक रास आता है। अगर वह विवाद करने के स्थान पर मौन रहें, तो झगडा उसी वक्त शांत हो जाय। सुखी रहने का मूलमंत्र सिर्फ सहनशीलता और चुप्पी ही हैं।

जब तक आदमी सावधान और जागरूक रहता है, तब तक उसे किसी तरह के डर की आशंका नहीं होती। चोर-डाकू, दुश्मन और ठग आम तौर पर सोये हुए लोगों पर ही घात लगाते हैं, इसीलिये चाणक्यनीति के इस सूत्र में आचार्य ने चौकन्ना रहने के महत्व को बताया है।

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Chanakya Niti Sutra 7 चाणक्य नीति सूत्र

7. दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी॥

अर्थ – दान से दरिद्रता का नाश होता है; चरित्र से दुर्गति का नाश होता है; प्रज्ञा (शुद्ध बुद्धि) से अज्ञान का नाश होता है और सदभावना से भय का नाश होता है।

चाणक्यनीति के इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने गरीबी, दुर्गति, अज्ञान और डर को खत्म करने का उपाय बताया है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग दूसरों का धन छीनते हैं या मजबूर लोगों की उनकी जरुरत के समय मदद नहीं करते हैं, तो भविष्य में उन्हें गरीबी का दंड मिलता है। इसके विपरीत जो लोग दान करते हैं, उन्हें कभी भी धन-संपत्ति की कमी नहीं होती। इसीलिये चाणक्य ने दान को दरिद्रता का नाश करने वाला कहा है।

इन्सान की दुर्गति और दुःख-दर्द का कारण उसका ही स्वभाव और उसके द्वारा दूसरों के प्रति किये गये अपराध होते हैं। जो लोग अच्छे चरित्र के होते हैं, वह ऐसे सभी कामों से दूर रहते हैं, जिससे किसी व्यक्ति के शरीर या मन को पीड़ा होती है। यही कारण है कि उन्हें कभी भी दुर्भाग्य का सामना नहीं करना पड़ता। इस संसार में कौन सी चीज अच्छी है और कौन सी बुरी, इसका ज्ञान हमें शुद्ध बुद्धि अर्थात प्रज्ञा से होता है।

इसीलिये इसे अज्ञान का नाश करने वाली बताया गया है। भय या आशंका का मूल कारण संदेह और अविश्वास ही होते हैं। यदि हमें किसी चीज के बारे में पर्याप्त विश्वास हो जाय, तो फिर डर के लिये कोई जगह नहीं बचती। डर का एकमात्र कारण हमारी दुर्भावना ही है और सबके प्रति सदभावना रखकर इसे नष्ट किया जा सकता है।

Chanakya Niti Sutra 8 चाणक्य नीति सूत्र

8. कृते प्रतिकृतं कुर्याद्हिंसने प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत्॥

अर्थ – उपकार करने वाले के प्रति उपकार की भावना रखना और हिंसा करने वाले के साथ हिंसा की भावना रखने में कोई दोष नहीं है।

आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में एक महत्वपूर्ण नीतिसूत्र बताया है। शास्त्र भी यही कहता है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिये। जो इन्सान अपना बुरा करने पर उतारू हो, उसके साथ समझदार इन्सान को जैसे को तैसा वाली नीति ही अपनानी चाहिये। अन्यथा, अपने खराब स्वभाव के कारण वह न जाने कितने लोगों को नुकसान पहुँचायेगा।

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Chanakya Niti Sutra 9 चाणक्य नीति सूत्र

9. मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चापि नियोजयेत्॥

अर्थ – किसी कार्य के संबंध में मन में कोई योजना बनाने वाले को उसे वाणी से प्रकट नहीं करना चाहिये और जब तक उस योजना को कार्य रूप में परिणत नहीं कर दिया जाता, तब तक उसे गुप्त मंत्र के समान सुरक्षित रखना चाहिये।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने Success पाने का रहस्य बताया है। दरअसल बात यह है कि अगर किसी काम को पूरा करने के पहले ही उसका भेद खोल दिया जाय, तो सब लोगों को उसके बारे में पता चल जाता है। भेद के खुलने से हमसे जलने वाला कोई भी शत्रु हमारी राह की अड़चन बन सकता है, इसीलिये अपनी योजना को गुप्त ही रखना चाहिये।

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Hindi Chanakya Niti with Images

Chanakya Niti Rule 10 चाणक्य नीति नियम

10. कवयः किंन पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः।
मद्यपा: किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः॥

अर्थ – कवि क्या नहीं देख सकता; स्त्री क्या कुछ नहीं कर सकती; शराबी क्या कुछ नहीं कह सकता और कौआ क्या नहीं खा सकता, अर्थात ये सभी जो कुछ भी कर गुजरे वह कम ही है। इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने इन प्राणियों की उस सामर्थ्य के विषय में बताया है जिसे पहचान पाना सामान्य लोगों के लिये मुश्किल है।

कवियों के विषय में कहा जाता है “जहाँ न पहुँचे रवि, वहां पहुँचे कवि।” अर्थात एक कवि की कल्पना वहां तक पहुँच सकती है जहाँ सामान्य जन नहीं पहुँच सकते। वे जिन उपमाओं और अलंकार का प्रयोग अपनी कविताओं में करते हैं, उसी से उनकी सूक्ष्म दृष्टि और सामर्थ्य का पता चल जाता है। पुष्प से भी अधिक कोमल लगने वाली स्त्री जाति अत्यंत दुस्साहसी होती है।

यदि वें कुछ करने की ठान लें, तो फिर वे हर सीमा का अतिक्रमण कर जाती हैं। अर्थात स्त्री वह कार्य कर सकती है जिसके विषय में कोई सोच भी नहीं सकता। शराबी के भीतर न तो विवेक रहता है और न शक्ति। उनका मन और बुद्धि शराब के नशे में चूर और अस्त-व्यस्त रहते हैं। ऐसे समय में वे बिना सोचे वह सब कुछ बक देते हैं जिसके बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

कौए को सबसे नीच पक्षी कहा गया है, क्योंकि यह सब कुछ खा-पी लेता है। जूठा, सडा-गला, खीर व माँस जो कुछ भी इसे मिल जाय, उसे बिना किसी लज्जा के खा लेता है। यह वह सब कुछ खा सकता है जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता।

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Chanakya Niti Rule 11 चाणक्य नीति नियम

11. नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्।
नास्ति चक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम्॥

अर्थ – बादलों के बरसने से प्राप्त हुए जल के समान शुद्ध जल कहीं नहीं है; आत्मबल के समान कोई दूसरा बल नहीं है; नेत्रों की ज्योति के सदृश कोई दूसरा प्रकाश नहीं है और अन्न के समान रुचिकर कोई दूसरा भोजन नहीं है।

आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में चार महत्वपूर्ण बातें बतायी हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्षा का जल सबसे शुद्ध होता है, क्योंकि वह आसवन से प्राप्त होता है। मनुष्य का आत्मा समस्त शक्तियों का स्रोत है। जिसे उस पर विश्वास है उसका पराभव करने में संसार की कोई भी शक्ति समर्थ नहीं है। नेत्रों की ज्योति की समानता कर सके ऐसा प्रकाश कहीं नहीं है।

क्योंकि इस स्वप्निल संसार में चारों तरफ बिखरी पड़ी, कुदरत के रंगों की सुन्दर छटा देखने का सौभाग्य हमें इन नेत्रों ने ही प्रदान किया है। अन्न प्राणिमात्र के अस्तित्व के लिये अनिवार्य है। सभी जीवों के प्राण अन्न पर ही निर्भर हैं। मनुष्य को तुष्ट कर सके ऐसा कोई भोजन, अन्न के अलावा संभव नहीं है।

Chanakya Niti Rule 12 चाणक्य नीति नियम

12. एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पंचभिर्बहुभी रणः॥

अर्थ – साधना या तप के लिए एकांत पर्याप्त है; पठन-पाठन के लिए दो पर्याप्त हैं; गायन के लिए तीन पर्याप्त हैं; यात्रा के लिये चार व्यक्ति पर्याप्त हैं; खेत बोने के लिए पाँच व्यक्ति काफी हैं; लेकिन युद्ध करने के लिए बहुत लोगों की आवश्यकता होती है।

इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने कार्य की विशालता के अनुसार संख्या बल बढ़ाने पर जोर दिया है। इसके अतिरिक्त वह संगठन के महत्व को भी रेखांकित करते हैं। तप या साधना एकांत में इसलिये अच्छे से होती है, क्योंकि तब मन नहीं भटकता। पढने-लिखने के लिये दो इसलिये काफी हैं, ताकि अध्ययन करते समय अपने-अपने संदेहों को एक-दूसरे से पूछकर दूर कर लिया जाय।

गायन और यात्रा के लिये चार व्यक्ति काफी है, क्योंकि इतने लोगों के रहने पर मनोरंजन आसानी से हो सकता है। खेती एक बड़ा और थका देने वाला काम है, इसीलिये इसमें चार-पाँच आदमियों की जरुरत रहती है। लेकिन युद्ध एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और इसके लिये हजारों-लाखों लोगों की आवश्यकता होती है।

Chanakya Niti Rule 13 चाणक्य नीति नियम

13. पादशेषं पीतशेषं सन्ध्याशेषं तथैव च।
श्वानमूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥

अर्थ – पैरों को धोने से बचा हुआ; पीने से बचा हुआ (जूठा जल); और सन्ध्या करने से बचा हुआ जल कुत्ते के मूत्र के समान त्याज्य है। जो भी व्यक्ति इस प्रकार के जल का सेवन कर लेता है, उसे अपनी शुद्धि के लिये चान्द्रायण व्रत करना चाहिये।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने शुद्धता के महत्व को बताते कुछ अशुद्ध चीजों विशेषकर जल की अशुद्धि से बचने को कहा है। यह तो कोई भी समझ सकता है कि जिस पानी से पैर धोये जाते हैं वह किसी भी तरह से पीने लायक नहीं होता, इसीलिये उसे पीना नहीं चाहिये। इसके अलावा अपना ही जूठा पानी भी पीने लायक नहीं होता है।

शास्त्रों में आचमन आदि के पश्चात बचे जल को अशुद्ध बताया गया है, क्योंकि उससे हम भावनाओं के द्वारा अपने शरीर की अशुद्धि को दूर कर लेते हैं। जो कोई इन्सान इन तीन तरह के अशुद्ध जल को पी लेता है, उसे चान्द्रायण व्रत करना पड़ता है, तभी जाकर वह पूरी तरह से शुद्ध हो पाता है।

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Chanakya Niti Principles in Hindi

Chanakya Niti Principle 14 चाणक्य नीति सिद्धांत

14. आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम्।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यम नायकम्॥

अर्थ – आलस्य के कारण और पर्याप्त अभ्यास के अभाव में प्राप्त विद्या भी नष्ट हो जाती है; दूसरे के हाथ में गया हुआ धन फिर लौटकर वापिस नहीं आता; थोडा बीज डालने से खेत नहीं फलता-फूलता; और सेनापति से रहित सेना विजय नहीं प्राप्त करती।

आचार्य चाणक्य का यह श्लोक चाणक्यनीति के महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है। हम अक्सर देखते ही हैं खिलाडियों, पहलवानों और विद्यार्थियों को बिना रुके-बिना थके नियमित रूप से अपने हुनर को निखारने के लिये मेहनत करनी पड़ती है। अगर वह ऐसा न करें, तो न सिर्फ उन्हें अपनी विद्या या हुनर भूलने का डर रहता है, बल्कि वह कभी उसे बहुत ज्यादा निखार भी नहीं सकेंगे।

दूसरे को दिया गया धन तब तक वापस लौटकर नहीं आ सकता, जब तक कि उधार लेने वाला ही वापस न देना चाहे। क्योंकि एक बार यदि कोई चीज अपने हाथ से निकल जाये तो फिर उस पर अपना अधिकार नहीं रह जाता है। फसल तभी अच्छी होती है, जब खेत में उत्तम बीजों को पर्याप्त संख्या में बोया जाय। कम बीज बोने से पैदावार भी अच्छी नहीं होती।

यूँ तो सेना सैनिकों से बनती है, लेकिन उसका नेतृत्व (Leadership) सेनापति के ही हाथों में होता है और यह निर्विवाद सत्य है कि Leader जैसा होता है Team Work भी वैसा ही होता है। इसीलिये अगर सेनापति अच्छा न हो या कोई सेनापति ही न हो, तो सेना बिल्कुल भी विजय (Victory) हासिल नहीं कर सकती है।

आगे पढिये किस तरह Positive Thinking एक महान नेतृत्व क्षमता को जन्म देती है – Leadership in Hindi for Future Leaders

Chanakya Niti Principle 15 चाणक्य नीति सिद्धांत

15. आचारः कुल्माख्याति देशमाख्याति भाषणम्।
सम्भ्रमः स्नेह्माख्याति वपुराख्याति भोजनम्॥

अर्थ – व्यक्ति के आचरण से उसके कुल का पता चलता है; भाषण अर्थात उसके वार्तालाप से उसके देश का पता चलता है; व्यक्ति के मन के भावों से उसके स्नेह का पता चलता है और उसके शरीर से उसके भोजन की मात्रा का पता चलता है।

इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने इंसानों की पहचान करने का एक आसान तरीका बताया है। कोई इन्सान चाहे वह अच्छा हो या बुरा, उसका आचरण देखकर आसानी से बताया जा सकता है कि वह किस खानदान से ताल्लुक रखता है। अगर उसके संस्कार अच्छे हैं, तो वह किसी कुलीन परिवार से ही संबंध रखता होगा। आदमी की भाषा से उसके देश का पता चलता है, मराठी बोलने वाले को देखकर कोई भी समझ सकता है कि वो महाराष्ट्र से होगा।

इसी तरह किसी इन्सान के मन में प्यार है या नफरत उसका पता हमें उसके व्यवहार से चल जाता है, क्योंकि जैसी भावना होती है वैसा ही व्यवहार भी होता है। किसी के शरीर को देखकर उसके भोजन करने का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। बड़े-बड़े पहलवान दिन में कई बार और खूब भोजन करते हैं, जो आम तौर पर सामान्य आदमी की तुलना में 3-4 गुणा होता है।

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Chanakya Niti Principle 16 चाणक्य नीति सिद्धांत

16. अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते॥

अर्थ – निरंतर अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है; शील(चरित्र) के संरक्षण से कुल का नाम उज्जवल होता है; सद्गुणों को आचरण में उतारने से श्रेष्ठता का परिचय मिलता है और नेत्रों से क्रोध का पता चलता है। इस श्लोक के जरिये आचार्य चाणक्य ने अभ्यास, चरित्र, सद्गुण और नेत्रों की महिमा बताई है।

यह तो सभी जानते हैं कि किसी भी विषय में दक्षता प्राप्त करने के लिये दीर्घकाल तक अभ्यास करना पड़ता है। क्योंकि अभ्यास के अभाव में पढ़ी हुई विद्या न तो कंठस्थ हो पाती है और न ही उस विषय का सूक्ष्म ज्ञान हो सकता है और अधूरा ज्ञान हमेशा खतरनाक ही सिद्ध होता है। किसी भी उच्च कुल की प्रतिष्ठा न तो धन-संपत्ति से होती है और न ही बल से, बल्कि चरित्र ही उज्जवल यश का एकमात्र आधार है।

चरित्रहीन व्यक्ति चाहे कितना ही वैभवशाली क्यों न हो, समाज उसका कभी सम्मान नहीं करता। कोई भी व्यक्ति आर्य के उपनाम से श्रेष्ठ नहीं बन जाता, बल्कि श्रेष्ठता का आधार उसके सद्गुण होते हैं। क्योंकि गुणों के आधार पर ही किसी व्यक्ति का यथार्थ मूल्यांकन किया जा सकता है।

हमारे शरीर के अंगों की मुद्राएँ, भाव-भंगिमाएँ हमारे व्यक्तित्व व मनोभावों की परिचायक हैं। मनुष्य प्रयत्न करने पर भी इन्हें छिपा नहीं सकता। यही कारण है कि जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तो वह उसके नेत्रों से प्रकट हो जाता है।

क्या कहती है आपकी बॉडी लैंग्वेज आपके व्यक्तित्व के बारे में – Body Language Guide in Hindi

Chanakya Niti Principle 17 चाणक्य नीति सिद्धांत

17. निमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो नव तृणोत्सवाः।
पत्युत्साहयुता नार्याः अहं कृष्ण-रणोत्सवः॥

अर्थ – जैसे यजमान से निमंत्रण पाना ही ब्राहमणों के लिये उत्सव होता है; जैसे हरी घास का मिल जाना ही गौओं के लिये उत्सव होता है; उसी तरह पति की प्रसन्नता ही स्त्रियों के लिये उत्सव होती है; लेकिन मेरे लिये तो भीषण रणों में अनुराग ही उत्सव है। आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक के माध्यम से इन प्राणियों के लिये प्रसन्नता के अवसर की चर्चा की है।

जैसे जब कोई व्यक्ति किसी ब्राहमण को शुभ कार्य में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रित करता है, तो वह उसके लिये उत्सव का अवसर होता है। क्योंकि तब उसे विशेष सम्मान के साथ-साथ दक्षिणा के रूप में प्रचुर धन-धान्य भी प्राप्त होता है। पशुओं को चारे के रूप में कोमल ताज़ी हरी घास सबसे प्रिय होती है और जब गौओं को वह मिल जाती है, तो वह अवसर उनके लिये किसी उत्सव से कम नहीं होता।

सभी शीलवान स्त्रियाँ अपने पति से बहुत प्रेम करती हैं। वह उनका सर्वस्व होता है, क्योंकि वह उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करता है। जब पति पत्नी से प्रसन्न होता है, तब वह क्षण निश्चित ही पत्नी के लिये एक उत्सव ही होता है। लेकिन आचार्य ने घोर संघर्ष में ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है।

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Best Chanakya Niti Secrets in Hindi

Hindi Chanakya Niti Secret 18 चाणक्य नीति रहस्य

18. विप्राअस्मिन् नगरे महान् कथयकस्तालद्रुमाकणंगणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातगृहीत्वा निशि।
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोपि दक्षो जनः,
कस्माज्जीवसि हे सखे ! विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम्॥

यात्रा करते हुए एक पथिक ने, रास्ते में पड़ने वाले एक नगर के, ब्राह्मण से उस नगर की जानकारी लेने के उद्देश्य से पूछा – “हे! ब्राह्मण! कृपया बताइये इस नगर में किसे बड़ा माना जाता है? पथिक जानना चाहता था कि उस नगर में विद्या, विज्ञान, कला, आदि की क्या स्थिति है? ब्राह्मण ने उत्तर दिया – “भाई यहाँ तो ताल के पेड़ों को ही सबसे ऊँचा और सबसे बड़ा माना जाता है।

उसके कहने का तात्पर्य था कि यहाँ बुद्धिमानी, विवेक, शील और विद्वत्ता का कोई मूल्य नहीं है। फिर उस पथिक ने पूछा – इस नगर में दानी महानुभव तो बहुत होंगे? ब्राह्मण ने उत्तर दिया – यहाँ तो धोबी ही सबसे बड़ा दानी है, जो सवेरे कपडे लेकर शाम को उसके मालिक को लौटा देता है।

फिर पथिक ने पूछा – यहाँ चतुर व्यक्ति किसे माना जाता है? ब्राह्मण ने उत्तर दिया – भाई जो दूसरों का धन और स्त्री छीनने में कुशल है, उसे ही यहाँ सबसे ज्यादा चतुर कहा जाता है। फिर पथिक ने पूछा – तो फिर भाई तुम कैसे जी पा रहे हो? ब्राह्मण ने उत्तर दिया – भाई जिस तरह विष में रहने वाला कीड़ा विष में ही जीता है, उसी तरह मेरा भी यहाँ रहने का स्वभाव बन गया है।

इस श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य ने आज की इस बनावटी और खोखली दुनिया की असली सच्चाई को प्रकट किया है। आज गुणों को पूछने वाला कोई नहीं है, और न ही लोग दान आदि देना पसंद करते हैं। जहाँ भी किसी को कोई अवसर मिलता है, वहीँ लोग अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करते हैं।

Hindi Chanakya Niti Secret 19 चाणक्य नीति रहस्य

19. दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥

अर्थ – मनुष्य को कभी भी दान, का, तपस्या का, शौर्य का, ज्ञान का, विनम्रता का, और नीतिकुशलता का अहंकार नहीं करना चाहिये। क्योंकि इस पृथ्वी पर एक से एक बढकर दानी, तपस्वी, शूरवीर और विद्वान् हुए हैं।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने अभिमान न करने का सन्देश दिया है। मनुष्य को स्वयं को किसी भी क्षेत्र में अति विशिष्ट नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति के मन में अहंकार जड़ जमाकर बैठ जाता है और एक दिन वह उसके पतन का कारण बनता है। अहंकार में मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है और बारंबार दूसरों का अपमान करता है।

यहाँ तक कि वह आत्ममुग्ध होकर अपने से श्रेष्ठ और उच्च व्यक्तियों का भी अपमान कर बैठता है। इससे धीरे-धीरे उसके सभी सद्गुण उससे दूर होने लगते हैं और उनके स्थान पर क्रोध अपनी जड़ ज़माने लगता है और फिर उसका वही हश्र होता है जो रावण, कंस और जरासंध का हुआ था।

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Hindi Chanakya Niti Secret 20 चाणक्य नीति रहस्य

20. गृहीत्वा दक्षीणां विप्रास्त्यजन्ति यज्मानकम्।
प्राप्तविद्या गुरुं शिष्याः दग्धारण्यं मृगास्तथा॥

अर्थ – जिस प्रकार दक्षिणा प्राप्त करने के बाद पुरोहित यजमान के घर से चला जाता है; जिस प्रकार विद्या प्राप्त करने के बाद शिष्य गुरु के पास से चला जाता है; उसी प्रकार वन के जल जाने पर उसमे निवास करने वाले पशु-पक्षी उस वन को छोड़कर दूसरे वन में चले जाते हैं।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कर्तव्य पालन और आदर पाने का मंत्र बताया है। इस प्रसंग में वह कहते हैं कि पुरोहित का कर्तव्य है कि वह दक्षिणा पाते ही यजमान के घर से चला जाय, अन्यथा उसका मान-सम्मान कम हो सकता है।

उसी तरह से शिष्य को चाहिये कि जैसे ही उसे विद्या प्राप्त हो जाय उसे गुरु के पास से चले जाना चाहिये। हमें भी इस सूत्र को गाँठ बांधकर स्मरण रखना चाहिये कि अपना कार्य पूरा होते ही दूसरे के स्थान से चुपचाप चल दें।

Hindi Chanakya Niti Secret 21 चाणक्य नीति रहस्य

21. वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढयेषु वृथा दीपो दिवाअपि च॥

अर्थ – सागर में वर्षा का होना व्यर्थ है; जो पहले से ही तृप्त हो ऐसे व्यक्ति को भोजन कराना व्यर्थ है; धनी व्यक्ति को दान देना व्यर्थ है, और दिन में सूर्य के प्रकाश में दीपक को जलाना व्यर्थ है।

चाणक्यनीति के इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने यह बताने का प्रयास किया है कि चीजों की आवश्यकता जिसे हो, वह उसे ही देनी चाहिये। सभी को नहीं, अन्यथा वह उसकी कद्र नहीं करते। जैसे बारिश की जितनी जरुरत सूखे मैदानों, पेड़-पौधों और खेतों को होती है, सागर को उतनी नहीं होती, क्योंकि वह तो पहले से ही अथाह जलराशि से भरा है।

जिसका पेट पहले से ही भरा हुआ है, उस व्यक्ति को भोजन कराने से क्या लाभ हो सकता है, क्योंकि उसे तो भोजन की जरुरत ही नहीं है। लेकिन अगर वह भोजन किसी भूखे को दिया जाय, तो न सिर्फ उसका पेट भरेगा बल्कि वह आपको हजारों दुआएँ भी देगा। किसी अमीर इन्सान को दान देने से क्या फायदा, क्योंकि उसके पास तो हर चीज पहले से ही मौजूद है।

दान तो गरीबों और मजबूरों को ही देना चाहिये, तभी उसका कोई फल मिलता है। दीपक का काम रात के अँधेरे को मिटाना होता है, क्योंकि रात में सूरज नहीं निकलता। लेकिन जब दिन में सूर्य निकला हुआ हो तब दीपक जलाने से क्या लाभ हो सकता है?

 

Famous Chanakya Niti Shlokas in Hindi

Chanakya Niti Shloka 22 चाणक्य नीति श्लोक

22. सुसिद्धमौषधं धर्मं गृहच्छिद्रं च मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्॥

अर्थ – सिद्ध औषधि (जिसका प्रभाव कभी व्यर्थ नहीं जाता ); धार्मिक आचरण; अपने घर के भेद; मैथुन (सेक्स); खराब भोजन और बुरी बातें, इन छह बातों को हर बुद्धिमान को हमेशा गुप्त रखना चाहिये।

आचार्य चाणक्य का यह श्लोक चाणक्यनीति के अनमोल हीरों में से एक है। जिसमे उन्होंने हर बुद्धिमान व्यक्ति को इन छह बातों को यथासंभव गुप्त रखने का निर्देश दिया है, क्योंकि इन बातों को छिपाने से ही उसका कल्याण होता है। अगर यह भेद दूसरों के सामने खुल जाय तो न केवल उसकी जग-हँसाई हो सकती है, बल्कि उसे नुकसान, और प्राणों तक से हाथ धोना पड़ सकता है।

किसी के पूछने पर भी यह बातें किसी से कहनी नहीं चाहियें, तभी व्यक्ति का कल्याण होता है। सिद्ध औषधि वह अनमोल चीज है जिसके सेवन करने से बड़े से बड़े रोग दूर हो जाते हैं। अगर हर किसी को इसका पता चल जायेगा, तो लोग इसका उपयोग किसी गलत काम में भी कर सकते हैं, इसीलिये इसका ज्ञान गुप्त ही रखना चाहिये। धार्मिक कार्य जैसे जप, तप और पुण्य जितने छिपाकर किये जाते हैं, उतना ही इनका प्रभाव ज्यादा बढ़ता है।

जबकि इनकी जानकारी लोगों के सामने प्रकट होने से इनका फल कम होता जाता है। अपने घर के भेद हर इन्सान को इतने गुप्त रखने चाहियें कि दीवारों को भी उसकी खबर न हो। क्योंकि अगर किसी को उन भेदों का पता चल जाय तो भयंकर अनर्थ तक हो सकता है। क्योंकि फिर आपके विरोधी आपके सारे रहस्यों को जान जाते हैं और आपके खिलाफ उनका इस्तेमाल कर सकते हैं।

यह कहावत तो प्रसिद्ध ही है – “घर का भेदी लंका ढावै।” अपनी बुरी बातें बताने से आपको लोकनिंदा का सामना करना पड़ सकता है, इसीलिये उन्हें भी किसी से नहीं कहना चाहिये। इसके अतिरिक्त खराब भोजन जैसे माँस, शराब, बासी भोजन आदि की चर्चा करने से लोग आपकी आर्थिक स्थिति और समझदारी का गलत अनुमान लगा सकते हैं, और पीठ पीछे आपकी बुराई कर सकते हैं।

मैथुन या सम्भोग क्रिया भी बेहद गुप्त रखने वाली चीज है। क्योंकि इसे प्रकट करने से न केवल आपके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है, बल्कि जिस स्त्री के साथ आपने सम्भोग किया है उस पर भी कलंक का टीका लग सकता है। भले ही वह स्त्री आपकी अपनी पत्नी ही क्यों न हो, पर कभी भी उसके साथ बिताये गये अपने निजी लम्हों को दूसरों को मत बताइये।

Chanakya Niti Shloka 23 चाणक्य नीति श्लोक

23. अतिरुपेण वै सीता अतिगर्वेंण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धों ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्॥

अर्थ – बहुत ज्यादा सुन्दर होने से सीता को दुःख उठाना पड़ा, बहुत ज्यादा अभिमानी होने से रावण का नाश हुआ, बहुत ज्यादा दान करने से बलि का सब कुछ चला गया, इसीलिये अति कभी नहीं करनी चाहिये।

सीता अत्यधिक सुन्दर थी। उनके अद्भुत रूप लावण्य के कारण ही रावण ने उनका हरण कर लिया था। यदि वह इतनी अधिक सुन्दर न होती, तो शायद तब लंकेश भी उन्हें पाने के लिये इतना उत्सुक नहीं होता; रावण बहुत ज्यादा अभिमानी था। उसकी पत्नियों, भाइयों, मंत्रियों और रिश्ते-नातेदारों ने उसे इतना समझाया, पर उसने किसी की नहीं सुनी।

उसने अपने शत्रु के प्रबल पराक्रम को स्वयं अपनी आँखों से देखा था, लेकिन अपने गर्व की गुरुता को न छोड़ने के कारण वह कुल सहित मारा गया। राजा बलि बहुत दानी था और अपने शौर्य से देवताओं को भी आतंकित करता रहता था। दान की इसी अति के कारण उसने अपने गुरु की बात भी नहीं मानी और छल से वामन का रूप धरकर आये भगवान् ने उसकी समस्त राज्यलक्ष्मी का हरण कर लिया।

इस तरह अति के कारण इन लोगों को इतना अधिक कष्ट उठाना पड़ा। आचार्य चाणक्य इस श्लोक के माध्यम से यही सन्देश देते हैं कि किसी भी मनुष्य को, कहीं पर भी किसी वस्तु की अति नहीं करनी चाहिये, अन्यथा व्यक्ति को बहुत दुःख उठाना पड सकता है।

आगे पढिये जिंदगी बदलने वाले वो अचूक Motivational Thoughts जो कभी असफल नहीं होंगे – 100 Motivational Thoughts in Hindi

Chanakya Niti Shloka 24 चाणक्य नीति श्लोक

24. निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यज्येत्।
खगाः वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम्॥

अर्थ – जिस तरह वेश्या अपने प्रेमी को निर्धन होने पर छोड़ देती हैं; उसी तरह प्रजा हारे हुए और अपमानित राजा को त्याग देती है। जिस तरह पक्षी फलों से रहित सूखे वृक्ष को छोड़कर चले जाते हैं; ठीक उसी तरह अतिथि को चाहिये कि वह भी भोजन-सत्कार के पश्चात गृहस्थ के घर को त्याग दे।

इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य व्यक्ति को अपने आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा को बचाये रखने का जीवनमंत्र बताते हैं। जैसे वेश्या की नजरों में पैसे वाले और अमीर प्रेमी का महत्व है, जैसे प्रजा की नजरों में सिर्फ शक्तिशाली और यशस्वी राजा का ही महत्व है।

जैसे पक्षी सिर्फ फलदार और हरे-भरे पेड़ को ही अपना बसेरा बनाना पसंद करते हैं, उसी तरह मेहमानों को भी अपना सम्मान बचाये रखने के लिये, आदर सत्कार के बाद गृहस्थों का घर छोड़ देना चाहिये और भूलकर भी वहाँ डेरा डालने के बारे में नहीं सोचना चाहिये, अन्यथा इज्जत कम हो जाती है।

Chanakya Niti Shloka 25 चाणक्य नीति श्लोक

25. कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरंतरम्॥

अर्थ – इस संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके कुल में कोई न कोई दोष या अवगुण न हो; इस संसार में ऐसा कौन है जो कभी किसी रोग से पीड़ित न हुआ हो; इस दुनिया में ऐसा कौन है जिसे कभी किसी व्यसन ने न घेरा हो और इस संसार में ऐसा कौन है जिसे सदैव सुख ही मिला हो, अर्थात ऐसा कोई इंसान नहीं है।

इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने चाणक्यनीति का एक महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट किया है जो हमें यह बताता है कि इन्सान को कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिये। लोग अक्सर अपने आप को जाति, कुल, सौंदर्य, स्वस्थ शरीर, अच्छाइयों और धन-संपत्ति के आधार पर बड़ा समझने लगते हैं, और दूसरों का अपमान करने का साहस कर बैठते हैं। वे भूल जाते हैं कि समय हमेशा एक सा नहीं रहता।

ब्रह्मर्षि पुलस्त्य के कुल में दुष्ट राक्षस रावण पैदा हुआ था, बड़े-बड़े राजाओं और योगियों को भी रोग और शोक ने घेरा है, जुए जैसे व्यसन के कारण पांडवों को बड़ी भारी विपत्ति झेलनी पड़ी और भगवान राम को भी जीवन में ज्यादातर समय दुःख ही झेलना पड़ा, इससे चाणक्य का यह सूत्र पूरी तरह सत्य ही सिद्ध होता है।

अगले लेख में पढिये आचार्य चाणक्य के जिंदगी बदलने वाले 100 प्रेरक विचार – 100 Chanakya Quotes in Hindi

“ज्ञानी के लिये स्वर्ग तुच्छ (तिनके के समान) है, शूरवीर के लिये जिंदगी तुच्छ है, इन्द्रियजीत के लिये स्त्री तुच्छ है, और निःस्पृही के लिये संसार तुच्छ है।”
– चाणक्य

 

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